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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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पन्द्रहवा व्याख्यान अब विनय के कथन के अनंतर चतुर्थ त्रिशुद्धि द्वार कहा जाता
मन-वचन-काया की संशुद्धि सम्यक्त्व को शुद्ध करनेवाली होती हैं । वहाँ पहले मन की शुद्धि हैं वह जिन-मत को सत्य जानना यह है।
जिन-मत अर्थात् अर्हत् द्वारा प्रणीत और सकल भावों को प्रकट करनेवाला द्वादशांगी रूप शास्त्र सत्य हैं । अन्य सर्व लौकिक
और पर--तीर्थिकों का शासन असार जानना वह मन-शुद्धि, यह अर्थ हैं। इस विषय में जयसेना का प्रबन्ध कहा जाता हैं
उज्जयिनी में संग्रामशूर राजा था । वहाँ वृषभ श्रेष्ठी रहता था। सम्यक्त्व गुण से विशिष्ट और पति का अनुसरण करनेवाली उसकी जयसेना नाम की पत्नी थी। परंतु वह वन्ध्यत्व दोष से युक्त थी। उसने एक दिन अपने स्वामी से कहा कि- हे स्वामी ! आप संतान के लिए विवाह करो ! पुत्र के बिना हमारा कुल नही शोभता । क्योंकि
__जहाँ पर स्वजनों की संगति नहीं हैं और जहाँ पर छोटे-छोटे शिशु नहीं हैं, जहाँ पर गुण-गौरव की चिन्ता नहीं हैं, हन्त ! वे गृह भी गृह नहीं हैं।
श्रेष्ठी ने कहा कि- हे भद्रे ! तेरे द्वारा सत्य कहा गया है, परंतु मेरा चित्त विषय आदि सुख से निरपेक्ष हैं । उसने कहा कि- हे स्वामी ! संतान के लिए यह दुष्ट नहीं हैं । तब श्रेष्ठी मौन कर स्थित हुआ । उसने किसी श्रेष्ठी की गुणसुन्दरी कन्या की याचना कर विवाहित किया । धीरे-धीरे से जयसेना ने सपत्नी पर सर्व गृह के भार का आरोपण कर स्वयं धर्माभिमुख हुई । क्रम से गुणसुंदरी को पुत्र हुआ ।
एक बार बन्धुश्री ने अपनी पुत्री से पूछा कि- हे पुत्री ! तुझे .