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उपदेश-प्रासाद - भाग १
चेटक राजा नगरी से बाहर निकलता हुआ कोणिक के द्वारा कहा गया कि-हे पूज्य नाना ! आप कहो, मैं किस आदेश को करूं? चेटक ने कहा- हे दोहित्र ! तुम एक क्षण विलंब करो, मैं वापी के जल में स्नान कर आता हूँ। कोणिक के द्वारा स्वीकार करने पर, चेटक गले में लोह की पुतली को बाँधकर और समाधि में लीन हुआ जब वापी के अंदर गिरा, तब धरणेन्द्र ने अपने दोनों हाथ रूपी संपुटों से गिरते हुए उसे धारण कर अपने भवन में ले गया । वहाँचेटक अनशन कर सहस्रार कल्प में इन्द्र के समान हुआ । उसका दोहित्र और सुज्येष्ठा का पुत्र सत्यकि विद्याधर समग्र नगरी के जन को नीलवंत पर्वत के ऊपर लेगया । कोणिक ने भी अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर चंपा में प्रवेश किया । देव और गुरु की आशातना में तत्पर कूलवालक भी मागधिका के संग से उत्पन्न हुए पाप से अनेक दुर्गतियों का भागी हुआ । . इस प्रकार हे भव्य-मनुष्यों ! सम्यक् प्रकार से अतिदुरन्तवाले कूलवालक साधु के इस चरित्र को सुनकर, जो तुम्हें मोक्ष की इच्छा हो तो सद्-गुरुओं की विषम विष के समान आशातना को मत करो । (अथवा यदि तुम्हारे मन में मोक्ष की इच्छा हो, तो सद्गुरुओं की आशातना का त्याग करो ) ।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में चौदहवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।