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उपदेश-प्रासाद - भाग १
७७ मागधिका ने उसे स्वीकारा । पश्चात् वह कपट श्राविका होकर और वन में उस मुनि को प्रणाम कर कहने लगी- मैं स्थान-स्थान में चैत्य
और साधुओं को वंदन कर भोजन करती हूँ। मैंने आपको यहाँ पर स्थित सुना था, इसलिए वंदन करने के लिए आयी हूँ। आप अनुग्रह करो और प्रासुक एषणीय भक्त को ग्रहण करो । इस प्रकार कहकर उसने नेपाल के गोटक चूर्ण से मिश्रित मोदक दीये । उससे अतिसार हुआ। उस वेश्या ने अन्य छोटी स्त्रियों के साथ वैसे मुनि की वैयावच्च की, जिससे कि वह वश में हुआ । पश्चात् वेश्या उसे कोणिक के समीप में ले गयी।
राजा ने उसे कहा- वैसा करो जिससे कि नगरी ग्रहण की जाये । राजाज्ञा प्रमाण हैं, इस प्रकार कहकर वह नगरी के मध्य में गया । सर्वत्र भ्रमण करते हुए उसने मुनिसुव्रत-स्वामी के स्तूप को देखकर सोचा कि- इसके प्रभाव से शत्रु सैन्यों के द्वारा यह नगरी भग्न नहीं की जा रही हैं । मैं इस स्तूप के भंग का उपाय करता हूँ। नागरिकों ने उस मुनि को देखकर पूछा-नगर का रोध कब दूर हटेगा ? उसने कहा- जब तुम इस स्तूप को गिराओंगें तब । उन्होंने वैसा किया । भग्न कीये जाते हुए स्तूप को देखकर वह पापी जाकर विश्वास के उत्पादन के लिए शत्रु सैन्य को दो कोश दूर दूसरी ओर भिजवाया । उस प्रत्यय के अनुसार से कूर्म पर्यंत शिला को गिरा दी । इस प्रकार बारह वर्ष के अंत में लोगों ने गोपुर को उद्घाटित कीये । सहसा ही कोणिक ने आकर उसे तोड़ डाला । जो कि इस अवसर्पिणी में पहले भी ऐसा निवृत्त हुआ रण नहीं हुआ था, क्योंकि उस युद्ध में एक करोड़ और अस्सी लाख सुभट मरण को प्राप्त हुए थे । वहाँ एक मछली की कुक्षि में दस हजार उत्पन्न हुए । एक देवलोक में, एक सुकुल में और शेष तिर्यंच तथा नरक गति में उत्पन्न हुए ।