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उपदेश-प्रासाद - भाग १
रात्रि के समय सेचनक पर चढ़े हुए हल्ल- विहल्ल उसके सैन्य को मारकर शीघ्र वापिस लौट आतें थें । कोणिक ने उन दोनों के द्वारा बहुत ही हनन की जाती हुई अपनी सेना को देखकर रहस्य में अपनी सेना के चारों ओर खादिर-अंगार से पूर्ण खाई बनाई । वें दोनों भी हाथी के ऊपर बैठे हुए उस खाई के समीप में गये । उस हाथी ने विभंग ज्ञान से जलती हुई खाई को ढंकी हुई देखकर-इन दोनों का विनाश न हो, इस प्रकार विचारकर उसने आगे पैर भी नहीं रखा । वेंदोनों हाथी को अंकुश से मारकर कहने लगें कि- रे दुरात्मन् ! अब प्रतिकूलता धारण कर रहे हो, वह योग्य नहीं हैं । उस वाक्य के अनंतर हल्ल-विहल्ल को अपने कुंभ स्थल से नीचे उतारकर खुद को खाई में गिरा दिया। उसके ताप से गज मरण को प्राप्त हुआ और प्रथम स्वर्ग में गया ।
हाथी को मरा हुआ देखकर विलक्ष हुए वें दोनों सोचने लगे कि- अहो ! पशु से भी हम दोनों अधन्य हैं, जो हमारी ऐसी बुद्धि हैं
और हम दोनों अनेक पापों से कैसे छूटेंगें ? इस प्रकार संवेग में लीन वेंदोनों शासनदेवी के द्वारा वीरविभु के पास में छोड़े गये और उन्होंने संयम ग्रहण किया । तप से तपकर वें दोनों सर्वार्थ-सिद्ध में गये ।
कोणिक ने मन में प्रतिज्ञा की कि-यदि मैं हलों से युक्त गधेड़ों के द्वारा विशाला को नही खुदाता हूँतो अग्नि में प्रवेश करूँगा। इस प्रकार प्रतिज्ञा कर नगरी को लेने में असमर्थ हुआ वह विषाद करने लगा । उस समय गुरु-आज्ञा के लोप से कुलवालक मुनि पर रुष्ट हुई शासन देवी आकाश में स्थित होकर राजा से कहने लगीजब कूलवालक मुनि मागधिका वेश्या के समीप में गमन करेगा, तब राजा अशोकचंद्र वैशाली नगरी को ग्रहण करेगा।
राजा ने मागधिका वेश्या को बुलाकर उसे वह कहा ।