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________________ ७४ उपदेश-प्रासाद - भाग १ उतरते हुए उन सूरि को चूर्ण करने के लिए बड़ी शिला डाली । वह गुरु के चरणों के मध्य में से निकल गयी । आचार्य ने शाप दिया- हे दुरात्मन् ! तूं स्त्री से विनष्ट होगा । उसने सोचा-जहाँ स्त्रियाँ नहीं होगी, मैं वहाँ रहूँगा । गुरु मिथ्यावादी हो ! इस प्रकार सोच कर वह नदी कूल [किनारे] में आतापना करने लगा। उसकी लब्धि से वह नदी अन्यत्र बहनें लगी । उससे लोगों ने उसका कूलवालक नाम किया। इस ओर श्रीश्रेणिक ने देव द्वारा अर्पित दिव्य कुंडल, अठारह . चक्र हार, वस्त्र सहित सेचनक हाथी हल्ल-विहल्ल को दिया । कोणिक रुष्ट हुआ और प्रपञ्च से उसने अपने पिता को काष्ठ के पिंजरे में डाला । क्रम से राजा के पर-लोक गमन करने पर कोणिकअशोक ने नूतन चंपापुरी को निवेशित कर काल आदि दस भाईओं के साथ वहाँ स्थित हुआ । एक दिन रानी पद्मावती के नित्य आग्रह से राजा ने हार आदि चार वस्तुओं की उन दोनों से याचना की । बुद्धिमंत उन दोनों ने- यह अशुभ के लिए हैं, इस प्रकार मानकर और अपनी समस्त सार वस्तुओं को ग्रहण कर रात्रि के समय में अपने नाना चेटक महाराजा के पास गये । कोणिक ने दूत के द्वारा उन दोनों की याचना की । राजा ने कहा- मैं शरण में आये दोनों दोहित्रों को कैसे अर्पण करूँ ? दूत के वाक्य के श्रवण से रोष से युक्त हुआ कोणिक अपने तीन करोड़ सुभटों के साथ तथा निज बल से तुल्य ऐसे काल आदि दस कुमारों के साथ चेटक के प्रति चला । चेटक भी अठारह राजाओं से युक्त युद्ध के लिए चला । उन दोनों का परस्पर युद्ध हुआ । प्रथम युद्ध में चेटक ने देव के द्वारा अर्पित बाण से काल को यम-आलय में पहुँचाया। दोनों ने भी विराम लिया । इस प्रकार दस दिनों में दस बाणों के द्वारा कोणिक के दस बान्धव भी मारे गये।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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