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उपदेश-प्रासाद - भाग १ स्त्री-रत्न को ग्रहण करें।
तब सिंहासन के ऊपर बैठा हुआ श्रेणिक चांडाल को आगे बिठाकर उन्नामिनी-अवनामिनी ऐसी दोनों विद्याओं को पढ़ने लगा । परंतु बहुत बार पढ़ने पर भी जब वेंविद्याएँ किसी भी प्रकार से हृदय में स्थित नहीं हो रही थी, तब क्रोधित हुए राजा ने-रे ! क्या तुम मुझ पर भी कूट कपट कर रहे हो ? इस प्रकार उसे दाँटा । तब अभय ने कहा-हे देव! इसे आप सिंहासन के ऊपर बिठाकर और स्वयं अंजलि जोड़कर पृथ्वी पर बैठो । राजा ने भी वैसे ही किया । उससे वें शीघ्र ही हृदय में लिखित के समान स्थित हुई । विद्या-गुरुत्व के कारण से अभय ने उस चांडाल को छुड़ाया । इसलिए विनय ही सर्वत्र फलदायी हैं । उससे विनय पूर्वक श्रुत अध्ययन आदि करना चाहिए।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में तेरहवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
चौदहवाँ व्याख्यान
अब अन्वय से विनय के स्वरूप को कहकर व्यतिरेक से .. व्याख्यान की जाती है
प्रकृति से दुर्विनीत-आत्मा, गुरु के कहे हुए में प्रतिकूल बुद्धिवाला शिष्य ऐसा कूलवालक संसार-सागर में मग्न हुआ था ।
एक आचार्य का दुर्विनीत शिष्य था । आचार्य उसे मारते थे। वह शिष्य शिक्षित करने पर भी क्रोधित होता था । अन्य दिन सूरि उसके साथ तीर्थ को नमस्कार करने के लिए उज्जयन्त-पर्वत पर गये थें । वहाँ पर यात्रिक स्त्री वर्ग के ऊपर चंचल नेत्रवालें कुशिष्य को देखकर उसे निवारण किया । वह भी क्रोधीत हुआ। उसने नीचे