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उपदेश-प्रासाद - भाग १
७२ उसने चोरों को स्व-प्रतिज्ञा कही । पश्चात् हे भाई ! वहाँ से लौटी हुई मैं तुम्हारें कहे हुए को करूँगी, इस प्रकार कहकर उन चोरों के द्वारा छोडी गयी वह आगे जाती हुई भूख से कृश हुए राक्षस के द्वारा रोकी गयी । सद्भाव के कहने पर वैसे ही राक्षस के द्वारा छोड़ी गयी वह माली के पास जाकर- मैं आगयी हूँ इस प्रकार उससे कहा । अहो यह सत्य प्रतिज्ञावाली है, इस प्रकार विचार कर उस माली ने अपनी बहन के समान वस्त्र आदि से सम्मानित कर उसे विसर्जित किया। वैसे ही उसने राक्षस से उस व्यतिकर के बारे में कहा । क्या मैं माली से भी मन्द सत्त्ववाला हूँ ? इस प्रकार सोचकर माली के समान उसे छोड़ दिया । उसने वैसे ही देखते हुए तथा वहीं पर बैठे हुए चोरों से माली
और राक्षस का वृत्तांत कहा । अहो ! क्या उन दोनों से भी हम अधम हैं? इस प्रकार सोचकर चोरों के द्वारा भी सन्मान कर वह छोड़ी गयी। अपने पति से उनके वृत्तांत का निवेदन कर वह सुख का अनुभव करने लगी।
इस प्रकार कथा को कहकर अभय ने लोगों से पूछा कि- हे लोगों ! इन चारों में दुष्कर-कारक कौन हैं ? नवविवाहित स्व-पत्नी भी अन्य पुरुष के लिए जिसने भेजी हैं, उसका वह पति दुष्कर-कारक हैं, इस प्रकार ईर्ष्यालु कहने लगें। भूख से पीड़ितों ने राक्षस का वर्णन किया । जार-पुरुषों ने माली की प्रशंसा की और इस ओर फल के चोर ने चोरों की प्रशंसा की । वह तभी अभय के द्वारा धारण किया गया और पूछने पर उसने सद्-भाव को कहा । रुष्ट हुए राजा के द्वारा वध के आदेश देने पर अभय ने कहा- इससे अपूर्व दो विद्याएँ ग्रहण की जाये, पश्चात् यथा-योग्य करें । क्योंकि
__ बालक से भी हित ग्रहण करे, अपवित्र वस्तु से भी स्वर्णको ग्रहण करे । नीच से भी उत्तम विद्या ग्रहण करे और दुष्कुल से भी