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उपदेश-प्रासाद
भाग १
राजगृह नगर में एक दिन श्रीवीरविभु के मुख से सतीत्व निर्णय आदि गुण को जानकर तुष्ट हुए श्रेणिक राजा ने चेलणा देवी से कहा- मैं तुम्हारें लिए अन्य रानीयों से कैसे विशिष्ट महल का संपादन करूँ ? चेलणा ने कहा- एक स्तंभवाले महल को बनाओं । राजा ने अभय कुमार को आदेश दिया । अभय ने बढईओं को आज्ञा दी। वें बढई उस महल के योग्य विशिष्ट काष्ठ के लिए अटवी में भ्रमण करते हुए बड़े स्कंधवाले एक महान् वृक्ष को देखकर आनंदित हुए सोचने लगे कि - निश्चय से यह दैव से युक्त वृक्ष है और इसके छेदन में हमारें स्वामी को विघ्न न हो, इस प्रकार उस वृक्ष के अधिष्ठायक की आराधना के लिए उस दिन उपवास कर और गंध, धूप तथा माला आदि से अधिवासित कर वें बढई स्व-स्थान पर चलें गये ।
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स्व-स्थान से भ्रंश से भय-भीत हुए उस वृक्ष का निवासी देव अभय के समीप में जाकर कहने लगा- मैं सर्व ऋतुओं के अद्भुत पुष्प और फलों से मंडित, नन्दन वन के समान और चारों ओर से कीलें से व्याप्त एक स्तंभवाले महल को करूँगा, मेरे भवन के ऊपर स्थित इस वृक्ष को तुम मत छेदो । अभय ने उसे वैसे ही स्वीकार किया । तब अचिन्तनीय शक्तिवालें व्यंतर ने भी शीघ्र से यथोक्त उस महल को किया । तब राजा के द्वारा आदेश दी गयी चेलणा वहाँ पद्म-ह्रद के कमल में लक्ष्मी के समान सदा लीला करने लगी ।
अन्य दिन उसी राजगृह नगर में गर्भिणी ऐसी चांडाल की प्रेयसी ने अपने पति से आम्र फल आस्वादन के दोहद को कहा । आम्रों का यह अकाल हैं और वें सर्व ऋतुक वन में हैं, परंतु किसी उपाय से प्राप्त कीये जाये, इस प्रकार सोचकर कीले के बाहर ही स्थित हुए चांडाल ने अवनामिनी विद्या से रात्रि के समय शाखा को