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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ वैयावच्च की । गुरु भी उसकी प्रशंसा करने लगें । भुवन-मुनि ने बहोत्तर लाख पूर्व प्रमाण व्रत का पालन किया । सर्व अस्सी लाख पूर्व अपनी आयु को पूर्ण कर अन्त में पादपोपगमन अनशन किया। पश्चात् केवलज्ञान को प्राप्त कर अनंत आनंद के साम्राज्य परम-पद को प्राप्त किया । ___इस प्रकार भुवनतिलक साधु के इस चरित्र को दोनों कानों के छिद्रों में स्थित कुंडल के समान प्राप्त कर तुम शीघ्र से अर्हत् आदि की विनय पूर्वक सेवा करो जिससे कि तुम्हारे अंक रूपी पाली को जल्दी से मोक्ष रूपी लक्ष्मी आश्रय करती हैं । अर्थात् शीव पद शीघ्र प्राप्त होता है। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में बारहवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। तेरहवा व्याख्यान अब विनय की स्तुति करतें हैं विनय से ज्ञान प्राप्त होता हैं और ज्ञान से दर्शन होता हैं, उससे चारित्र की संपत्ति होती हैं, और अंत में विनयवान मोक्ष सुख को प्राप्त करता हैं। श्रुत-ज्ञान के इच्छुक के द्वारा विशेष कर गुरु आदि के विनय में प्रवर्तन करना चाहिए । विनय पूर्वक ग्रहण किया हुआ श्रुत शीघ्र ही सम्यक् फलप्रद होता हैं, अन्यथा नहीं । यहाँ यह दृष्टांत हैं_ जैसे श्रीश्रेणिक को, श्रेष्ठ आसन के ऊपर बिठाकर चांडाल के पुत्र से विनय पूर्वक ग्रहण की हुई विद्या फलित हुई थी, वैसे ही सविनय पढ़ा हुआ शास्त्र ऋद्धि के लिए होता हैं।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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