________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १ हैं और ज्ञान का फल विरति हैं तथा विरति का फल आश्रवों का निरोध हैं । संवर का फल तपो-बल हैं और तप से निर्जरा फल देखा गया हैं, उससे क्रियानिवृत्ति तथा क्रियानिवृत्ति से अयोगित्व और योगों के निरोध से भव संतति का क्षय होता हैं और संतति के क्षय से मोक्ष होता हैं । उस कारण से समस्त कल्याणों का पात्र विनय हैं।
इस प्रकार दी हुई वैनयिकी शिक्षा भी विपरीत ही उसमें द्वेष के लिए हुई । गुरुओं ने उसकी उपेक्षा की । क्रोधित हुए उसने उनकी मृत्यु के लिए प्रासुक जल में तालपुट विष डाला । भय से स्वयं ने वहाँ से पलायान किया । किसी अरण्य के अंदर रात्रि में सोया हुआ वह दावाग्नि के द्वारा जलाया गया और रौद्र-ध्यान से मरकर अन्तिम नरक में गया । इधर शासन देवी ने उस जल के परिभोग से साधुओं को निवारण किया । अब उस नरक में से निकलकर और मत्स्य आदि में उत्पन्न होकर तथा बहुत भव भ्रमण कर थोड़े कर्म की लघुता से अब राजा का पुत्र हुआ हैं । उसने ऋषि-घात के कुकर्म से इस दशा को प्राप्त की हैं । मेरे द्वारा कहे हुए वृत्तान्त को तुम्हारे मुख से सुनकर वह नीरोगी होगा।
इस प्रकार सूरि के वचन को अंगीकार कर मंत्री प्रमुखों ने उसे वह वृत्तान्त कहा और उससे भुवनतिलक ने चैतन्य को प्राप्त किया। जाति-स्मरण ज्ञान से युक्त राज-पुत्र सूरि को नमस्कार करने के लिए गया । मुनि को प्रणाम कर पूर्व कर्मो के क्षय के लिए राज-पुत्र ने मंत्रियों के साथ में गुरु के समीप में दीक्षा ग्रहण की । अपने पति के वृत्तान्त को प्राप्त कर यशोमती ने भी क्षणिक मूर्छा के अंत में क्षण विनश्वर सुख के निरपेक्षता से माता-पिता से पूछकर दीक्षा ग्रहण की । सैन्य के अन्य लोगों ने उसके पिता से उसके चरित्र के बारे में कहा ।
अब भुवन-साधु ने दिन-रात तीर्थंकर आदि दस की भी