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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ६७ विवाह के लिए मुझे यहाँ भेजा हैं । राजा ने उस वाक्य को प्रमाण कर उस प्रधान का सम्मान किया । - - राजा के आदेश से शुभ दिन होने पर मंत्री और सामंतों से युक्त राज-कुमार ने प्रस्थान किया । अन्य दिन सिद्धपुर के बाहर मूर्च्छा से आँखों के मिल जाने से वह राज कुमार सहसा रथ के भीतर गिर पड़ा और मूक के समान उत्तर नहीं दे रहा था । हिम से जलाये हुए कमल के समान म्लान मुखवालें ऐसे मंत्रियों के द्वारा लाये हुए मांत्रिकों के प्रयोग ऊषर भूमि ऊपर वृष्टि के समान व्यर्थ हुए । उस समय उन्हें सुवर्ण कमल के दल पर बैठे हुए केवली देशना दे रहे है, इस प्रकार यह सुना ! तब वें भी ज्ञानी के समीप में जाकर और प्रणाम कर वाणी को सुनने लगें । हे भव्यों ! निरवधि ऐसे भव रूपी समुद्र में मगरमच्छ के समूह के समान संभ्रम से भ्रमण करते हुए प्राणी पुण्य से कैसे भी अद्भुत ऐसे मनुष्य जन्म को प्राप्त कर जो श्री सिद्धि और परमेष्ठियों का साधन हैं तथा सुख रूपी वृक्ष के लिए मेघ के समान हैं ऐसे उसकी सफलता के लिए तुम विनय पूर्वक आराधन करो । व्याख्यान के अवसान में कंठीरव नामक मंत्री ने पूछा कि - हे भगवन् ! कुमार को किस हेतु से अतर्कित ही दुःख की प्राप्ति हुई हैं ? केवली ने कहा धातकीखंड के भरत में भुवनागारपुर में पाप-समूह से रहित ऐसे सूरि गच्छ सहित आये थें । उनका वासव नामक शिष्य महात्माओं का प्रत्यनीक और दुर्विनय रूपी समुद्र में मग्न था । एक गणधरों ने उसे अनुशासित किया कि- हे वत्स ! तुम विनय करो । क्योंकि विनय का फल शुश्रूषा हैं और गुरु-शुश्रूषा का फल श्रुतज्ञान
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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