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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ६४ नागरिक लोगों को संतोषित कर उसने वसुदेव से कहा कि- तुम राज-भवन में ही क्रीड़ा करो । उसने समुद्रविजय के वाक्य को स्वीकार किया । 1 - एक दिन ग्रीष्मकाल में शिवादेवी के विलेपन के लिए चंदन के कचोले को लेकर जाती हुई दासी को देखकर वसुदेव ने पूछा कितुम क्या लेकर जा रही हो ? मुझे दो ! उसने नहीं दिया । वसुदेव ने बल से अपने देह पर विलेपन किया । रुष्ट हुई दासी ने कहा कि- तुम ऐसे हो, इसलिए ही राजा ने तुझे गृह रूपी कारावास में डाला हैं । उसने पूछा- कैसे ? दासी ने सर्व स्वरूप को कहा । वसुदेव रात्रि के समय क्रोध से नगरी से निकलकर तथा अपनी जंघा का विदारण कर उसके रक्त से नगरी के द्वार पर लिखा कि- भाई के अपमान से वसुदेव ने चिता में प्रवेश किया हैं । उसके आगे चिता के मध्य में एक मृतक को जलाकर अन्य देश चला गया । प्रति गाँव में भ्रमण करते हुए उसने विद्याधर आदि की बहोत्तर हजार कन्याओं के साथ विवाह किया । शौरिपुर में प्रारब्ध हुए रोहिणी के स्वयंवर मंडप में अनेक राज-परिवार मिलें हुए थें । वसुदेव वामन और कुब्ज रूप कर उनके बीच में आया । वहाँ रोहिणी उसके मूल स्वरूप को देखती हैं । अन्यों की अवगणना कर उसने वामन के कंठ में वरमाला डाली । तब रुष्ट हुए समुद्रविजय आदि उसके साथ युद्ध करनें लगें । ज्येष्ठ भाई के साथ युद्ध करना अयोग्य हैं, इस प्रकार मानकर उसने स्व-नाम से अंकित बाण समुद्रविजय ऊपर छोड़ा। उस बाण को लेकर आपको वसुदेव प्रणाम करता हैं, इस प्रकार वर्णावलि को पढकर उसने जाना कि यह मेरा छोटा भाई हैं और किसी कारण से इसने इस रूप को किया हैं । वहाँ पर सभी मिलें । वसुदेव ने उसके साथ विवाह I -
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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