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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ की निश्रा में छोड़कर और प्रासुक जल को ग्रहण करने के लिए जाते हुए देव के द्वारा सभी गृहों में अनेषणीय करने के कारण से, बहुत गृहों में भ्रमण करते हुए उसके तपोबल से ही कहीं पर शुद्ध जल को प्राप्त किया । वहाँ से उसके साथ ग्लान के समीप में गया । अतिसार से ग्रस्त हुए उसके शरीर का प्रक्षालन करने लगा। तब साधु के अतीव दुर्गंध को छोड़ने पर नन्दिषेण ने सोचा कि- अहो ! कोई भी कर्म से नहीं छूटता हैं ? पश्चात् उस साधु को भुजा ऊपर रखकर उपाश्रय में ले जाने लगा । वह पद-पद पर विष्टा से नन्दिषेण के देह को लींपता हैं, फिर भी नन्दिषेण लेश-मात्र भी दुर्गंछा नहीं करता हैं। वैसे उस साधु को उपाश्रय में लाकर नन्दिषेण सोचने लगा-मैं इस साधु को कैसे नीरोगी करूँगा ? इस प्रकार वह अपनी निन्दा करने लगा । उसे वैयावच्च में निश्चल जानकर वें दोनों देव प्रत्यक्ष हुए और सुगंधी जल और पुष्पों की वृष्टि कर तथा उस मुनि की स्तुति कर और क्षमा माँगकर स्वर्ग में गये । नेमि-चरित्र की संमति से उस यति ने बारह हजार वर्ष पर्यंत तप का आचरण किया था तथा वसुदेव-हिंडि की संमति से पचपन हजार वर्ष पर्यंत दीक्षा का परिपालन किया था । अंत में अनशन कीये हुए उस नन्दिषेण को वंदन करने के लिए अंतःपुर सहित चक्रवर्ती वहाँ पर आया । अलंकार सहित उसकी स्त्रियों को देखकर और अपने पूर्व कर्मका स्मरण कर- मैं इस तप से स्त्री-वल्लभ बनूँ, इस प्रकार निदान किया और मरकर महाशुक्र में देव हुआ । वहाँ से च्यवकर सूर्यपुर में अन्धकवृष्णि की सुभद्रा पत्नी की कुक्षी से दसवाँ वसुदेव पुत्र हुआ । वह पूर्व में कीये हुए निदान से स्त्री-वल्लभ हुआ। वह नगर में भ्रमण करता तब, वहाँ नगर की नारीयाँ गृह कार्यों को छोड़कर उसके पीछे भ्रमण करती थी। उससे उद्विग्न हुए नागरिकों ने समुद्रविजय राजा से विज्ञप्ति की ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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