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उपदेश-प्रासाद - भाग १ ने भी उसका त्याग किया। मामा के घर में रहा हुआ वह दास-कर्म को करने लगा । अत्यन्त कुरूप के कारण से कोई कन्या उससे विवाह नहीं करती थी । तब मामा ने कहा- तुम खेद मत करो, मेरी सात कन्याएँ हैं, उनमें से एक कन्या मैं तुझे दूंगा । अब उसने अनुक्रम से अपनी पुत्रीयों से अभ्यर्थना की । परन्तु वें सब ही कहने लगी-हम विष-भक्षण, पाश-ग्रहण आदि करेंगी, किन्तु हम इसको नहीं चाहती हैं । उससे दुःखित हुआ नन्दिषेण उस गृह को छोड़कर वन में गया और पर्वत से गिरने की इच्छावाला वह कायोत्सर्ग में रहे हुए मुनि के द्वारा निवारण किया गया । उसने मुनि को प्रणाम कर अपने स्वरूपको कहा । उसे सुनकर मुनि ने कहा कि- हे मुग्ध ! तुम मलद्वार से मलिन स्त्रीयों में मति मत करो और मरने पर कर्म का क्षय नहीं हैं। उससे तुम जीवन पर्यंत व्रत-धर्म को करो जिससे तुम इस भव में सुखी बनोगें । यह सुनकर उसने प्रव्रज्या ग्रहण की और विनय से धर्म-शास्त्र को पढते हुए गीतार्थ हुआ । और उसने इस प्रकार से अभिग्रह लिया-छट्ट के पारणे में लघु, वृद्ध और ग्लान साधुओं की वैयावच्च कर आचाम्ल करूँगा । प्रति-दिन इस प्रकार से करता हुआ वह सुरेन्द्र के द्वारा सभा में प्रशंसित किया गया। उसकी श्रद्धा नहीं करते हुए दो देव परीक्षा के लिए प्रवृत्त हुए।
वहाँ एक देव अतिसार से ग्लान साधु होकर नगर से बाहर रहा और अन्य देव साधु के रूप से जब नन्दिषेण के पास में आया, तब वह छट्ठ के पारणे में प्रत्याख्यान को समाप्त कर भोजन करने के लिए बैठा । तब द्रव्य-साधु भाव-साधुके प्रति कहने लगा कि-हे साधु ! तेरा अभिग्रह कहाँ गया हैं ? जो नगर के बाहर स्थित और तृषा से आक्रान्त हुए ग्लान साधु की वैयावच्च कीये बिना ही भोजन करने के लिए बैठ रहे हो ? तब भाव-साधु ने उस अन्न के पात्र को साधु