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उपदेश-प्रासाद - भाग १ हुआ वह महात्मा आठवें सहस्रार देवलोक में देवपने से उत्पन्न हुआ।
__ सद्-वाक्यों के भावार्थ को बुद्धि से जानकर चिलातीपुत्र ने बहुत सारे पापों का नाश किया । वैसे ही भविक-प्राणी चिलातिपुत्र सम पापों को छोड़ दें, जिससे कि मोक्ष रूपी सुख की लक्ष्मीयाँ हाथ पर क्रीड़ा करनेवाली हो ।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में दशवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
ग्यारहवा व्याख्यान अब गुरु और जिन की वैयावच्च रूप तृतीय लिंग कहा जाता है। जिनेश्वरों के-साधुकी वैयावच्च करना यह तीसरा लिंग होता हैं।
राग आदि अठारह दोषों को जीतने से जिन हैं ,और पंच विध आचार में चतुर । तथा तत्त्व को कहते हैं, वें गुरु है , जिनेश्वर की द्रव्य-भाव पूजा के द्वारा तथा गुरु की अशन-पान आदि से अवश्य ही वैयावच्च करनी चाहिए । यह वैयावच्च प्राणिओं के उत्तम गुण के लिए होती हैं, इस प्रकार से यह तृतीय लिंग हैं । इस विषय में संप्रदाय से आया हुआ यह नन्दिषेण का प्रबन्ध हैं। ___सुंदर भाव से साधुओं की वैयावच्च करता हुआ प्राणी नन्दिषेण के समान अत्यंत शुभ कर्म को बाँधता हैं।
नन्दिग्राम में सोमिला-सोमिल को नन्दिषेण नामक पुत्र था । बाल्य-अवस्था में उसके माता-पिता मर गये । केशों से लेकर नख तक कुरूपवान्, बिल्ली के समान पीली आँखवाले, गणेश के समान लंबे उदरवाले, ऊँट के समान लंबे ओष्ठवाले तथा हाथी के समान लंबे दाँतवाले ऐसे नन्दिषेण के दौर्भाग्य कर्मोदय को मानकर स्वजनों