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उपदेश-प्रासाद - भाग १
६० जाते हुए कायोत्सर्ग में खड़े एक मुनि को देखा । चोर कहने लगा किहे मुनि ! शीघ्र से धर्म कहो, अन्यथा इस तलवार से स्त्री के मस्तक के समान तेरे मस्तक को छेदूंगा ! उसे योग्य और सत् पात्र मानकर संक्षेप से उपशम, विवेक और संवर इस प्रकार तीन पदों का उच्चारण करते हुए तथा नमस्कार पद को पढ़कर आकाश-मार्ग से चले गये।
साधु के द्वारा कहे हुए पद को सुनकर वह चोर सोचने लगाउपशम का क्या अर्थ हैं ? इस प्रकार विचार करते हुए फिर से भी कहने लगा-उपशम अर्थात् क्रोध की उपशान्ति हैं, वह अब मुझे कहाँ हैं ? इस प्रकार विचारकर उसने क्रोध के चिह्न रूपी तलवार को छोड़ दी । पुनः सोचते हुए उसने विवेक के अर्थ को जाना-कृत्यअकृत्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति, यह विवेक हैं और उससे धर्म होता है, वह मुझे कहाँ हैं ? क्योंकि दुष्टत्व का सूचन करनेवाला स्त्री का मस्तक मेरे हाथ में हैं और इस प्रकार से सोचकर उसने स्त्री-मस्तक का त्याग किया । फिर से वह संवर के अर्थ को सोचने लगा- चित्त और इंद्रियों का निरोध वह संवर हैं और मुझ स्वेच्छाचारी को वह कहाँ हैं । इस प्रकार से सोचकर वह मुनि के समान मुनि के पाद स्थान पर कायोत्सर्ग से खड़ा हुआ । और जब तक मुझे स्त्री-हत्या का पाप स्मृति को प्राप्त होता हैं, तब तक मुझे कायोत्सर्ग हो, इस प्रकार के अभिग्रह को लिया।
तब रुधिर के गंध से आयी हुई चींटीयों के द्वारा सर्वशरीर भी चालनी के समान किया गया । दोनों पैरों से आरंभ कर सर्व अंग का भक्षण करती हुई चीटियाँ उसके मस्तक में से निकलने लगीं । ढाई दिन तक तीव्र वेदना को सहन करता हुआ वह शुभ ध्यान से चलित नहीं हुआ। उससे अपने आयुष्य के क्षीण हो जाने पर मरण को प्राप्त