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उपदेश-प्रासाद - भाग १
और यहाँ चारित्र धर्म-राग अभिप्रेत हैं । इस प्रकार यह द्वितीय लिंग हैं । इस विषय में चिलातीपुत्र का दृष्टांत हैं जैसे कि
तीव्र धर्म के अनुराग से प्राणी चिलातीपुत्र के समान शीघ्र ही दुष्ट भी पाप का क्षय करतें हैं। - क्षितिप्रतिष्ठ नगर में यज्ञदेव नामक ब्राह्मण प्रशंसनीय ऐसे अर्हन्-मत की निन्दा करता था । अपने को पंडित मानता हुआ ब्राह्मण एक दिन वाद करने के लिए किसी क्षुल्लक-साधु ने बुलाया । तब उस ब्राह्मण ने शर्त की- जो मुझे जीतता हैं मैं उसका शिष्य बनूँगा । क्षुल्लक के द्वारा निग्रह के स्थान पर प्राप्त हुआ उसने दीक्षा ली ।
एक दिन शासन-देवी ने ब्राह्मण से कहा- जैसे चक्षुमान् भी सूर्य के बिना नही देखता हैं, वैसे ही ज्ञानवंत भी जीव शुद्ध-चारित्र के बिना नही देखता हैं, उससे तुम चारित्र में अत्यंत स्थिर बनो । परंतु ब्राह्मणपने से उसने दुर्गंछा को नहीं छोड़ी और उसकी प्रिया उसके ऊपर स्नेह को नहीं छोड़ रही थी। उससे उसको वश करने के लिए कार्मण करने लगी । उससे क्लेशित होते हुए शरीरवाले ब्राह्मणऋषि ने सम्यक् प्रकार से धर्म की आराधना कर स्वर्ग में देव हुआ । वह भी कार्मण से उसके मरण को जानकर निर्वेद सहित व्रत को ग्रहण कर उसकी आलोचना कीये बिना स्वर्ग में गयी । वह ब्राह्मण स्वर्ग से च्यवकर राजगृह नगर में धन-सार्थवाह की चिलाती नामक दासी की कुक्षि में पुत्र हुआ । लोगों ने उसका चिलातीपुत्र नाम दिया । उस ब्राह्मण की पत्नी भी सुसुमा नामक धन के ही पाँच पुत्रों के ऊपर पुत्री हुई । धन ने पुत्री की क्रीड़ा के लिए चिलातीपुत्र को रखा।
एक बार अपनी पुत्री के साथ पशु-क्रीड़ा करते हुए उसे जानकर धन ने स्व-गृह से निकाल दिया । वहाँ वह सिंह-गुहा नामक चौरों की पल्ली में गया । वहाँ पल्ली के स्वामी ने अपने