SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ हुआ । इस प्रकार कभी छठ के पारणे में अन्न आदि को प्राप्त करता तो उस अन्न को स्वामी से निवेदन कर मूर्छा रहित होकर भोजन करता । इस प्रकार उत्तम तप-कर्म से आत्मा को भावित करते हुए अर्जुन माली-मुनि को प्रतिपूर्ण छह मास व्यतीत हुए और अंत में अर्ध-मासिक की संलेखना से अन्तकृत् केवली होकर अनन्तचतुष्क से अंकित अव्यय-पद को प्राप्त किया। प्रति-दिन सात जनों को मारकर और वीर-जिन से दीक्षा को प्राप्त कर तथा असदृश अभिग्रह का पालन कर छह मास के पश्चात् वह अन्तकृत्-केवली हुआ। सुदर्शन ने भी स्वर्ग के सुख को प्राप्त किया । इस प्रकार हे भव्य-जनों । आगम श्रवण में सादर चित्त की वृत्तिवालें और व्यापारी ऐसे सुदर्शन के वृत्तांत को सुनकर, भव-समुद्र को तीरने में नाव तुल्य धर्म-श्रुति में तुम हमेशा ही प्रयत्न करो । अन्तकृत सूत्र में भी यह कथानक कहा गया हैं। इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में यह नौवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। दसवाँ व्याख्यान अब धर्म-राग जो द्वितीय लिंग हैं । उसे अनन्तर कहे हुए श्लोक के द्वितीय पद से कहते हैं कि- जिनेश्वरों के द्वारा कहे हुए धर्म में राग का होना । राग और द्वेष से रहित ऐसे जिनेश्वरों के द्वारा, कहे हुए, धर्म में-यति और श्रावक के भेदों से भिन्न ऐसे सद्-अनुष्ठान में, राग-मन की परम-प्रीति । शुश्रूषा में श्रुत-धर्म राग अभिप्रेत था
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy