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उपदेश-प्रासाद - भाग १ उसने कायोत्सर्ग किया । तब सुदर्शन को हराने में असमर्थ हुआ वह यक्ष मंत्र से वमन कीये गये विषवाले सर्प के समान, रोष रहित बना स्वयं ही मुद्गर को लेकर भय-भीत हुए के समान उसके शरीर को छोड़कर पलायन करने लगा। उससे छोड़ा हुआ अर्जुन भी छिन्न वृक्ष के समान पृथ्वी ऊपर गिर पड़ा और क्षण में चैतन्य को प्राप्त कर तथा श्रेष्ठी को देखकर पूछने लगा- तुम कौन हो ? कहाँ जा रहे हो ? श्रेष्ठी ने कहा- मैं सुदर्शन हूँ, श्रीमहावीर प्रभु को नमस्कार करने के लिए जा रहा हूँ । सर्वज्ञ को नमस्कार करने के लिए तुम भी साथ चलो, चलो । वहाँ से दोनों ही भगवान् के समवसरण में गये और जिन को प्रणाम कर देशना सुनने लगें । जैसे कि
___ मोह से अंधित हुए इस जगत् में मनुष्य-जन्म, आर्य-देश, सुकुल में जन्म, श्रद्धालुता, गुरु के वचनों का श्रवण करने में विवेक ये सिद्धि रूपी महल की सीढियों की पद्धति सुकृत से प्राप्त हुई है।
इस प्रकार देशना को सुनकर और नियम-ग्रहण कर श्रेष्ठी अपने घर चला गया । अर्जुन ने भी संवेग से उस हिंसारूपी-पाप को दूर करने के लिए प्रभु के पाद-मूल में दीक्षा ग्रहण की । उसने उसी दिन ऐसे अभिग्रह को ग्रहण किया कि- हे प्रभु ! मैं आपकी आज्ञा से सदा ही छट्ठ के तप-कर्म से आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता हूँ । स्वामी ने कहा- तुम यथा-रुचि करो । साधु वैसे ही विचरण करते हैं । वह साधु पारणा करने के लिए भिक्षा के लिए जाता हैं और उनको देखकर लोग इस प्रकार कहते हैं- इसने मेरे पिता को मारा हैं, इसने मेरी माता को मारा हैं और ऐसे ही भाई, बहन, पत्नी को मारा हैं, इस प्रकार कहकर वे लोग उस मुनि पर आक्रोश करतें हैं, मारतें हैं, अनादर करतें हैं और निन्दा करतें हैं। उनके ऊपर मन से भी दुष्ट हुए बिना सम्यक् प्रकार से सर्व उपसर्गों को सहन करता