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उपदेश-प्रासाद - भाग १ से जाना । अर्जुन के वचन श्रवण से उत्पन्न हुए कोप रूपी आडंबर से युक्त यक्ष ने भी अर्जुन के देह में प्रवेश कर और रस्सी के बंधनों को तोड़कर तथा लोहमय मुद्गर को निकालकर बंधुमती सहित उन छह गोष्ठिकों को चूर्ण किया । वहाँ से प्रारंभ कर प्रति-दिन वह जब तक स्त्री सहित अन्य भी छह पुरुषों को नहीं मारता, तब तक उसका क्रोध उपशांत नहीं होता, इस प्रकार उसके स्वरूप को सुनकर श्रेणिक ने पटह-वादन पूर्वक लोगों को निवारण करने लगा कि- जब तक अर्जुन के द्वारा सात लोग मारे चुके न हो, तब तक नगर से किसी के द्वारा भी नही निकला जाएँ।
इस अवसर पर श्रीवीर प्रभु का समवसरण हुआ और सुदर्शन-श्रेष्ठी महा-श्रावक ने स्वामी के आगमन को सुना । जिनवचन रूपी अमृत को पीने की इच्छावाला और आनंदित हुए उसनेमैं जिन-वंदन करने के लिए निकल रहा हूँ, इस प्रकार माता-पिता से विज्ञप्ति की । तब उस सुदर्शन को माता-पिता कहने लगें कि- हे वत्स ! अब वहाँ जाते हुए तुझे उपसर्ग होगा, उससे तुम विराम प्राप्त करो और यहाँ रहकर ही भाव से वंदन करो।
सुदर्शन ने कहा कि- हे माता-पिता । त्रिजगत्-गुरु के उपदेश को सुने बिना मुझे भोजन करना भी नहीं कल्पता । मातापिता को अनुज्ञापन कर त्रिजगत् के स्वामी को नमस्कार करने के लिए मार्ग में जाते हुए उसने क्रोध से मुद्गर को उठाकर कुपित हुए यम के समान आते हुए अर्जुन को देखकर निर्भय-चित्तवाला होकर पृथ्वी को वस्त्र के आँचल से प्रमार्जन कर वहाँ पर बैठा । जिनेश्वर को नमस्कार कर, चार शरणों को स्वीकार कर, सर्व-प्राणियों से क्षमा माँगकर, साकार अनशन कर तथा उपसर्ग के पार होने पर ही पारूँगा इस प्रकार सोचकर पंच-परमेष्ठी महामंत्र का स्मरण करते हुए