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उपदेश-प्रासाद - भाग १ आद्य लिंग हैं । इस विषय में सुदर्शन का प्रबंध लिखा जाता हैं -
राजगृह नगर में अर्जुन मालाकार रहता था । उसे रूपयौवन से सुंदर बंधुमती नामक प्रियतमा थी । उस नगर के बाहर पाँच वर्णवालें कुसुमों से आकीर्ण पुष्पाराम हैं । उसके समीप में हजार पल से निष्पन्न हुए लोहमय मुद्गर को धारण करनेवाले मुद्गरपाणि यक्ष का आयतन हैं। प्रति-दिन वह अर्जुन पत्नी सहित उस कुल-देवता की अर्चा करता था । . एक दिन किसी महोत्सव के दिन में मुद्गर यक्ष के आयतन में छह पुरुष क्रीड़ा करते हुए विचरण करने लगें । तब भार्या सहित वह अर्जुन सुंदर पुष्पों को ग्रहण कर यक्ष की पूजा के लिए आता हुआ उन छह गोष्ठिकों के द्वारा देखा गया । उन्होंने अन्योन्य आलोचना की कि- इसकी पत्नी निरुपम कायावाली हैं और आज इसे बाँधकर उसके प्रत्यक्ष ही हम स्वेच्छा से इसके साथ क्रीड़ा करें । इस प्रकार से स्वीकार कर वेंद्वार-कपाट के पश्चात् भाग में छिपकर खड़े हुए । तब वह अर्जुन पुष्प आदि से पूजा कर पंचांग प्रणाम करने लगा, उतने में ही वें छह गोष्ठिक भी शीघ्र से बाहर निकलकर और उसे बंधनों से बाँधकर उसकी प्रिया के साथ भोगों को भोगने लगें । उसने सोचा- मेरे जीवन को धिक्कार हैं, जैसे कि
माता-पिता का पराभव प्राणिओं के द्वारा अत्यंत मुश्किल से ही सहन कीया जाता हैं । और भार्या के पराभव को सहन करने में तिर्यंच भी समर्थ नहीं होते।
. अहो ! मेरे देखते हुए भी ये पशु के समान पशु धर्म का आचरण कर रहें हैं । वह भी क्रोध से यक्ष को उपालंभ देने लगा किहे यक्ष ! तुम सत्य ही शिलामय देव ही हो । मैंने इतने काल पूजा की हैं और आज मैंने उसका फल प्राप्त कर लिया । तब यक्ष ने उसे ज्ञान