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उपदेश-प्रासाद - भाग १ अपने परिवार के साथ प्रव्रजित हुए थे ।
हे भव्य-जनों ! तुम कानों को सुखकारी और गुणों का एक मंदिर ऐसे गणधर के चरित्र को सुनो जिससे कुदर्शन की हानि से शिव-सुख को करनेवाले ऐसे शुचि-दर्शन की प्राप्ति हो ।
इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम-स्तंभ में आठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
___ नौवाँ व्याख्यान
अब सम्यक्त्व के शुश्रूषा आदि तीन-लिंगों का स्वरूप लिखा जाता हैं, जैसे कि
__भगवान् के वचन के ऊपर शुश्रूषा, जिन के द्वारा कहे गये धर्म में राग और जिनेश्वर के साधुओं की वैयावच्च, इस प्रकार लिंग तीन प्रकार से हैं।
अर्हत् द्वारा प्रणीत वचन के प्रति-दिन शुश्रुषा अर्थात् सुनने की इच्छा का होना, क्योंकि श्रवण के बिना कभी ज्ञान आदि गुण उत्पन्न नहीं होते हैं । जो कि आगम में कहा गया हैं कि- श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और उससे पच्चक्खाण, जिससे संयम की प्राप्ति और उससे सरल तप जिससे अक्रिया की प्राप्ति से निर्वाण प्राप्त होता हैं।
तथा जिस प्रकार से याकिनी-सुत हरिभद्र-सूरिजी ने कहा हैं
कि
जैसे कि क्षार पानी के त्याग से और मधुर पानी के योग से बीज अंकुर को उत्पन्न करता हैं, वैसे ही तत्त्वों को सुनने से मनुष्य उन्नति को धारण करता हैं । इसलिए ही यह शुश्रूषा सम्यक्त्व का