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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ समाधान करें, तब मैं इसे सर्वज्ञ जानूँगा । शीघ्र ही सजल्ल घन गंभीर वाणी से भगवान् ने कहा किहे गौतम! तुम क्या सोच रहे हो ? जीव हैं अथवा नहीं हैं । निश्चय ही यह तेरा संशय अनुचित है । तुम मान रहे हो कि चार प्रमाणों से अग्राह्यपने से जीव नहीं हैं । किन्तु तुम वेद पदों के अर्थ को नहीं जानते हो, उससे यह संदेह हैं। और यें वेदों के पद हैं- विज्ञान-घन इन भूतों से उत्पन्न होकर और इन में ही विनष्ट होता हैं, प्रेत्य की संज्ञा नहीं है । इससे तुमने जीव का अभाव स्थापित किया है, जो यह अयुक्त है, इत्यादि सर्व युक्तिओं से व्याप्त व्याख्यान को विशेषावश्यक से जानें । तथा दूध में घी, तिलों में तैल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में सौरभ्य और चन्द्रकान्त में सुधा हैं, वैसे ही जीव भी देहान्तर्गत जानो, इससे जीव हैं । उस कारण से संशय के छेदित हो जाने पर वह पाँच सो शिष्यों के साथ जरा-मरण से विमुक्त जिनेश्वर के पास में श्रमण हुआ । उसके बाद उत्पन्न होतें हैं, नष्ट होते हैं और ध्रुव रहतें हैं इस प्रकार से प्रभु के मुख से त्रिपदी को प्राप्त कर द्वादशांगी की रचना की । ५२ वहाँ उत्पन्न होतें हैं, इसका क्या अर्थ हैं ? भगवान् ने कहाजीवों से जीव उत्पन्न होते हैं, जीवों से अजीव उत्पन्न होतें हैं, जैसे कि देहों में से नख आदि उत्पन्न होतें हैं ! अजीवों से जीव उत्पन्न होतें हैं, जैसे कि पसीने से जूँ आदि । अजीवों से अजीव उत्पन्न होतें हैं । विगम अर्थात् हानि कैसे होती है ? जीवों से जीव मरण प्राप्त करतें हैं । अजीवों से जीव मरण प्राप्त करतें हैं । जीवों से अजीव मरतें हैं । अजीवों से अजीव पदार्थ विनष्ट होते हैं । तथा नित्य, अछेद्य, अभेद्य आदि ध्रुव होतें हैं । इस प्रकार अन्य ब्राह्मण भी निज संदेह का छेदन कर क्रम से
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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