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उपदेश-प्रासाद - भाग १ है वह जरा-भीरु नहीं है। हाँ ! जान लिया हैं- दोषों से विवर्जित और अखिल गुणों से आकीर्ण यह अंतिम तीर्थंकर हैं । यह सूर्य के समान दुष्प्रेक्षनीय हैं, समुद्र के समान दुस्तर है, हा ! अब मैं इसके आगे अपने महत्त्व का किस प्रकार से रक्षण करूँ ? अहो ! मुझ मूर्ख ने सिंह के मुँह में हाथ डाला हैं, बबूलवृक्ष का आलिंगन किया है और इस ओर नदी और इस ओर सिंह, यह न्याय उत्पन्न हुआ हैं । और अधिक-कौन कील के हेतु से प्रासाद को तोड़ना चाहता हैं ? सूत्र की इच्छावाला कौन हार को तोड़े ? कौन भस्म के लिए चंदन को जलाएँ ? लोहार्थी कौन महान् समुद्र में नाव को तोड़े ? अहो ! मुझ मन्ददुर्बुद्धिवालें का अविचारितकारीपना हुआ हैं जो इस जगदीशअवतार को जीतने के लिए यहाँ पर आया हूँ । इसने किसी दिव्य प्रयोग से मेरे मन को वश किया हैं, जिससे मुझे ऐसी मति उत्पन्न हुई हैं । मैं इसके आगे कैसे कहूँगा ? मैं कैसे पास में जाऊँगा ? यदि आजन्म ही सेवित ऐसे शिव यहाँ मेरे यश का रक्षण करे तो श्रेष्ठ हैं? अथवा जगत्-जीतनेवाले इसके आगे शिव भी क्या कर सकतें हैं ? वह भी भागकर कहीं पर चला गया हैं।
जो कोई भी प्रकार से भाग्य से यहाँ मेरी जय हो, तो तीनों लोक में मैं पंडितो में मूर्धन्य होऊँगा ।
इत्यादि विचार करता हुआ वह भगवान् के द्वारा कहा गया कि- हे गौतम-इन्द्रभूति ! तेरा स्वागत हैं ? तब उसने सोचा किअहो ! यह मेरा नाम भी जानता हैं ? अथवा तीनों जगत् में प्रख्यात मेरे नाम को कौन नहीं जानता है ? सूर्य, आबाल-गोपाल तक लोगों को क्या प्रच्छन्न हैं ? परंतु यह मुझे मीठे वाक्यों से संतोषित कर रहा हैं। यह मुझसे डर रहा हैं जिससे यह वाद नहीं करेगा, परंतु मैं संतोषित नहीं हुआ हूँ। यदि मेरे मन में रहे संशय को प्रकाशित करता हैं और