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उपदेश-प्रासाद
भाग १
५०
कान्ति को बढाने के लिए बारह तिलक से युक्त, स्वर्ण यज्ञोपवीत को धारण किया हुआ, देदीप्यमान वस्त्रों के आडंबर से युक्त और पाँच सो छात्रों के द्वारा बिरुदों को पढ़ा जाता हुआ वह इन्द्रभूति चलने लगा । वें बिरुद इस प्रकार से हैं- सरस्वती के कंठ के आभरण समान, सर्व पुराणों को जाननेवालें, वादी रूपी कदली वृक्षों के लिए तलवार के तुल्य, वादी रूपी अंधकार के लिए सूर्य समान, वादी रूपी चक्की के लिए मुद्गर के समान सर्व शास्त्रों के आधार, प्रत्यक्ष परमेश्वर, वादी रूपी उल्लू के लिए सूर्य के समान, वादी रूपी समुद्र के लिए अगस्ति के समान, वादी रूपी तितली के लिए दीपक के समान, वादी रूपी ज्वर के लिए धन्वन्तरी के समान, सरस्वती से लब्ध प्रसाद, बृहस्पति को शिष्य समान करनेवालें । इत्यादि बिरुदों के सुनते हुए तथा आगे जाते हुए अशोक आदि और आजन्म से बाँधे हुए वैर को छोड़कर वहाँ स्थित हिंसक - प्राणियों को देखकर वह इन्द्रभूति कहने लगा कि - अहो ! यह बड़ा धूर्त्त लगता है । तब शिष्य कहनें लगे कि - हे पूज्य ! हम आपकी कृपा से प्रति-दिन शत-कोटि वादीयों की जय में समर्थ हैं और इसकी बात ही क्या हैं ? अकेला ही शिष्य इसे निग्रहित करेगा ।
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वह सुनकर शंकित हुआ वह इन्द्रभूति जिन के आगे सीढी ऊपर खड़ा हुआ तथा विस्मित हुआ सोचने लगा कि - क्या यह ब्रह्मा है ? अथवा क्या ईश्वर हैं ? क्या विष्णु हैं ? क्या सूर्य हैं ? जैसे किक्या यह चन्द्र हैं ? नहीं, यह चन्द्र नहीं हैं क्योंकि चन्द्र कलंक सहित हैं । सूर्य भी नहीं है, क्योंकि सूर्य तीव्र कान्तिवाला हैं । क्या यह मेरु है ? नहीं, यह मेरु भी नहीं है, क्योंकि मेरु अति कठिन हैं। यह विष्णु भी नहीं हैं क्योंकि वह विष्णु काला हैं । क्या यह ब्रह्मा है ? नहीं, यह ब्रह्मा नहीं है क्योंकि वह जरा से आतुर है और जो शरीर-रहित
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