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________________ उपदेश-प्रासाद ४६ भाग १ कोई भी नहीं है, जो मेरे साथ वाद कर सकता हो और यह वाद करने की इच्छा कर रहा है, उससे मेंढक काले सर्प को चपेटा देने के लिए तत्पर हुआ हो अथवा वृषभ दोनों श्रृंगों से ऐरावण हाथी पर प्रहार करने की इच्छा करता हो अथवा दोनों दाँतों से हाथी पर्वत गिराने का प्रयत्न करता हो अथवा यहाँ पर आने से जो मैं क्रोधित किया गया हूँ, वह सोये हुए सिंह को जगाने के समान हुआ है और स्वआजीविका तथा यश की हानि के लिए ही इसके द्वारा यह क्या किया गया हैं, जैसे कि - पवन के संमुख रहे इसके द्वारा दावाग्नि जलायी गयी है और देह के सुख के लिए कपिकच्छू-लता आलिंगन की गयी हैं तथा शेषनाग के शीर्ष में रहे हुए मणि को लेने के लिए हाथ प्रसारित किया गया हैं । और तब तक जुगनु गर्जना करता है तथा तब तक चन्द्र गर्जना करता है, किन्तु सूर्य के उदय होने पर न ही जुगनु होता हैं और न ही चन्द्र होता हैं । एक सिंह के नाद से सभी हिंसक - प्राणी भाग जातें है । तथा तब तक बहते हुए मद से व्याप्त हुआ गालवाला हाथी काले मेघ के समान गर्जनाओं को करता है, जब तक वह सिंह के गुफा-स्थलों में पूंछ के विस्फोट शब्द को नहीं सुनता हैं । अथवा आज मेरे भाग्य के समूह से यह वादी उपस्थित हुआ हैं, जैसे कि दुर्भिक्ष-काल में भूखे को चिन्तित से भी अधिक अन्न के लाभ के I समान । - अब मैं उसके पास में जाता हूँ, यम को मालव दूर नहीं है, और चक्रवर्ती को अजेय कुछ भी नहीं हैं, बुद्धिवंतों को अज्ञेय क्या हैं ? कल्पवृक्षों को क्या अदेय हैं ? मैं उसके पराक्रम को देखता हूँ । साहित्य-तर्क-व्याकरण - छन्द - अलंकार आदि शास्त्रों में मुझे अतीव दक्षत्व हैं । किस शास्त्र में मेरा श्रम नहीं हैं ? मैं इसे जीतता हूँ और सर्वज्ञ आडंबर को दूर करता हूँ । तब अलंकार और देह
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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