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________________ ४७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ गुरु ऐसे वीर भगवंत को प्राप्त कर इन्द्रभूति गणधर कुसंग के त्याग से सद्धर्म कथन में रत हुए थे । ___ केवलज्ञान-उत्पत्ति अनंतर श्रीवीरविभु अपापा में महासेन वन में आये । वहाँ सोमिल ब्राह्मण के घर में यज्ञ के लिए इन्द्रभूतिअग्निभूति आदि ग्यारह ब्राह्मणोत्तम मिलें । उन ब्राह्मणों में से आद्य पाँचों के पाँच सो-पाँच सो परिवार थें । दो को प्रत्येक से साढे तीन सो का परिवार हुआ था और चारों को प्रत्येक से तीन सो का परिवार था, इस प्रकार से ये चार हजार और चार सो ब्राह्मण थे । इसी बीच भगवान् के नमस्कार के लिए आते हुए सुर-असुरों को देखकर और दुंदुभि के शब्द को सुनकर वेंकहने लगे कि- अहो ! हमारे यज्ञ-मंत्र से आकृष्ट हुए देव साक्षात् आ रहें हैं । परंतु उन देवों को चांडाल के पाटक के समान यज्ञ पाटक को छोड़कर प्रभु के पास जाते हुए जानकर वें ब्राह्मण खेदित हुए । यें देव सर्वज्ञ को वंदन करने के लिए जा रहें हैं, इस प्रकार जन-श्रुति से जानकर उनमें मुख्य ऐसे इन्द्रभूति ने सोचा कि- अहो ! मुझ सर्वज्ञ के होने पर भी, अन्य अपने को सर्वज्ञ का ख्यापन कर रहा हैं । कदाचित् कोई मूर्ख किसी धूर्त के द्वारा ठगा जाता हैं किन्तु इसने तो देवों को भी ठगा हैं जो इस प्रकार से मुझे और यज्ञ-मंडप को छोड़कर तथा जैसे मेंढक सरोवर के प्रति, ऊँट सुंदर वृक्ष के प्रति, उल्लू सूर्य-उद्योत के प्रति, और कुशिष्य सुगुरु के प्रति आचरण करते है,वैसे ही यें उसके समीप में जा रहें हैं । अथवा जैसा यह सर्वज्ञ हैं, वैसे ही यें है । फिर भी मैं इस इन्द्रजालिक को सहन नहीं करूँगा । आकाश में दो सूर्य नहीं होतें हैं और गुफा में दो सिंह नहीं होते हैं और न ही म्यान में दो तलवार रहती हैं। वहाँ से भगवान् को वंदन कर वापिस लौटते हुए लोगों से वह पूछने लगा- कैसा रूपवाला यह देखा हुआ सर्वज्ञ हैं ? लोग अष्ट
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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