SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ४६ आठवा व्याख्यान अब मैं चौथे सर्व विसंवादी पाखंडियों के परिहार रूप भेद का विवरण करता हूँ। भव्यों के द्वारा जो शाक्य आदि, कुदृष्टि, बौद्ध और कूटवादियों का वर्जन किया जाता हैं, वह चौथी श्रद्धा कही जाती हैं। शाक्य आदि उन्मार्ग के उपदेशक हैं और वें ये हैं । मांस के भक्षण में दोष नही हैं और न मद्य में, न मैथुन में । यह प्राणियों की प्रवृत्ति हैं, निवृत्ति महा-फलवाली हैं। हे सुंदर नेत्रोंवाली ! हे सुंदर शरीरवाली ! तुम पीओ, खाओ जो अतीत हुआ हैं, वह तेरा नहीं है । हे स्त्री ! गया हुआ नहीं लौटता है और यह शरीर समुदय-मात्र ही हैं। आदि शब्द से एकान्त नय के अंगीकार में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जो कहते है- जितने वचन के पथ होते हैं, उतने ही नयवाद होते है और जितने नयवाद होते है उतने ही मिथ्यात्व होते है । ऐसी उनकी प्ररूपणा है। तथा कुत्सित-खराब. दृष्टि-दर्शन हैं जिनका, ऐसे वें कुदृष्टयः-कुदृष्टिवालें, उन पाखंडियों की संख्या तीन सो और तरसठ हैं। आगम में यह इस प्रकार से हैं-क्रियावादियों की संख्याएक सो और अस्सी हैं, अक्रियावादियों की संख्या-चौरासी हैं, अज्ञानवादियों की संख्या-सडसठ हैं और वैनयिकों की संख्याबत्तीस हैं । तथा बौद्ध-क्षणिक, उनकी संगत तथा कूटवादियों कीनास्तिकों की संगत भव्यों के द्वारा-शुद्ध बुद्धिवालों के द्वारा, वर्जन की जाती हैं । वह चौथी श्रद्धा हैं । सर्वथा ही उनका संग शीघ्र से छोड़ना चाहिए, यह तात्पर्यार्थ हैं। यहाँ पर कहा हुआ इन्द्रभूति के दृष्टांत से दृढ़ किया जाता हैं
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy