SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ही विहार करते हैं। और मैं उत्पन्न हुए ज्ञान-दर्शन सहित अर्हन, सर्वज्ञ हुआ हूँ। तब गौतम ने उसे कहा कि- हे जमालि ! तुम ऐसा मत कहो, क्योंकि केवलज्ञानी का ज्ञान कहीं पर भी स्खलित नहीं होता । यदि तुम केवली हो तो मेरे प्रश्न का उत्तर दो- यह लोक शाश्वत हैं अथवा अशाश्वत हैं ? ये जीव नित्य हैं अथवा अनित्य हैं ? यह सुनकर उसके उत्तर को प्राप्त नहीं होने पर वह जमालि नियंत्रित कीये गये सर्प के समान मौन रहा । तब प्रभु ने कहा कि- हे जमालि ! जो छद्मस्थ शिष्य हैं, वें भी इस प्रकार से उत्तर देने की इच्छा करते हैं यह लोक भूत, भवत् और भावी की अपेक्षा से नित्य हैं और उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी की अपेक्षा से अनित्य हैं । हे जमालि ! द्रव्य रूप से यह जीव सदा शाश्वत हैं और तिर्यंच, मनुष्य,नारक और देवों के पर्याय से अशाश्वत हैं। स्वामी के वाक्य ऊपर श्रद्धा नहीं करता हुआ और स्व-पर को उत्सूत्र-आरोपणों के द्वारा मिथ्या-अभिनिवेश से व्युद्ग्राहित करता हुआ तथा अंतिम समय मैं पन्द्रह दिन का अनशन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कीये बिना वह लान्तक में तेरह सागरोपम की आयु स्थितिवाला किल्बिषिक देव हुआ । इस चरित्र को विशेष से पंचमअंग से जानें । तथा जिनेश्वर ने भी कहा कि- देव, तिर्यंच और मनुष्य भवों में पाँच बार व्यतीत कर तथा बोधि को प्राप्त कर निर्वाण-सुख को प्राप्त करेगा । इस प्रकार प्राकृत वीर-चरित्र में हैं। इस प्रकार जमालि के चरित्र को सुनकर गत-दर्शनीयों का संग न करें और संग के प्राप्त होने पर भी ढंक के समान जो श्रद्धा को नहीं छोड़ते हैं वें स्वर्ग को प्राप्त करतें हैं। . इस प्रकार उपदेश-प्रासाद में इस प्रथम स्तंभ में सातवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy