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उपदेश-प्रासाद - भाग १ हैं, तभी वह निष्पन्न होता हैं । यहाँ बहुत कहने योग्य हैं, उसे महाभाष्य से जानें । तथा अर्ध बिछाएँ हुए को देखकर आपने जो कहा था, वह भी अयुक्त ही हैं, क्योंकि जो, जब और जिस आकाश के प्रदेश में बिछाया जाता हैं, वह, तब, वहाँ यह बिछाया हुआ ही हैं। पश्चात् के वस्त्र के बिछाने के समय से यह बिछाया हुआ ही हैं। भगवान् के वचन विशिष्ट समय की अपेक्षावालें होतें हैं, इसलिए ही दोष रहित हैं । इत्यादि युक्तियों से बोधित नहीं होते देखकर उसे छोड़कर वें स्थविर श्रीमद्वीर के समीप में गये।
सुदर्शना भी तब वहीं श्रावक ऐसे ढंक कुंभकार के घर में थीं। उसने जमालि के अनुराग से उसके मत को ही स्वीकार किया था । वह ढंक को भी व्युद्ग्राहित करने लगी। उससे ढंक ने उसे मिथ्यात्व को प्राप्त हुई जानकर कहने लगा- ऐसा हम कुछ-भी नहीं जानतें हैं । एक दिन आपाक के मध्य में मिट्टी के बर्तन को ऊपर-नीचे करते हुए उस ढंक ने उसी प्रदेश में स्वाध्याय करती हुई सुदर्शना के वस्त्र के एक भाग में एक अंगार को डालकर संघाटिक-आँचल को जला दिया । उसने कहा- हे श्रावक ! तूंने मेरी संघाटिका जलायी । उसने कहा किनिश्चय ही जलाया जाता हुआ जलाया गया हैं , यह भगवंतों का सिद्धांत हैं । उससे कहाँ और किसने आपकी संघाटिका को जलायी हैं ? इत्यादि उसके कहे पर विचारकर और प्रतिबोधित हुई उसने- मैं सम्यग् रीति से प्रेरित की गयी हूँ, इस प्रकार कहकर और मिथ्या दुष्कृत को देकर जमालि के पास में जाकर प्रज्ञापित किया । जब वह कैसे भी प्रतिबोधित नहीं हुआ, तब उसे अकेला छोड़कर वह भगवान् के समीप में आयी।
एक दिन जमालि चंपा में जाकर श्रीवीरविभु से कहने लगा कि- हे जिन ! आपके अन्य शिष्य मुझे छोड़कर छद्मस्थ अवस्था से