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________________ ४३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ में समर्थ नहीं हुआ, तब उसने श्रमणों से कहा- मेरे निमित्त तुम शीघ्र से संस्तारक को बीछाओं, जिससे मैं वहाँ पर बैठ सकूँ । तब वें उसे करने लगें । अत्यंत दाह के ज्वर से अभिभूत हुए जमालि ने पूछासंस्तारक को बिछाया अथवा नहीं ? साधुओं ने प्रायः कर बिछा लेने से, अर्ध बिछाने पर भी कहा कि- बिछा दिया हैं । उससे वेदना से विह्वलित चित्तवाला यह उठकर वहाँ पर बैठने की इच्छावाला हुआ, अर्ध बिछाएँ उसे देखकर क्रोधित हुआ । क्रियमाणं कृतं किया जाता हुआ किया गया इत्यादि वचन का स्मरण कर मिथ्यात्व के उदय से युक्तिओं से कहा जाता हुआ यह झूठ हैं, और सोचने लगा कि- किया जाता हुआ- किया गया और चलता हुआ-चला इत्यादि भगवान्का वचन झूठ हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष ही मेरे समक्ष में यह बिछाया गया है, उससे किया जाता हुआ संस्तारक नहीं किया गया हैं । उससे सभी की जाती हुई वस्तु कृत नहीं होती हैं । किंतु कृत ही की गयी हैं, इस प्रकार से कहा जाता हैं । जो क्रिया-काल के अंत में ही घट आदि कार्य होता हुआ दिखायी देता हैं और चक्र पर घूमते आदि काल में नही दीखायी देता हैं । आबाल को यह प्रत्यक्ष सिद्ध ही हैं । इस प्रकार विचारकर स्वस्थ हो जाने के बाद उसने साधुओं को स्व-कल्पित कहा । तब अपने गच्छ के स्थविरों ने यह कहा कि- हे आचार्य ! भगवान् का यह वाक्य सत्य ही हैं और न ही प्रत्यक्ष से विरुद्ध हैं । क्योंकि एक घट : आदि कार्य में संख्या-अतीत अवांतर कारण-कार्य होते हैं । मिट्टी का लाना, रौंदन, पिंड करना, शिवक-स्थास आदि का काल सर्व भी घट बनाने का क्रिया-काल, इस प्रकार आपका अभिप्राय हैं वह अयुक्त है । क्योंकि वहाँ प्रति समय अन्य-अन्य कार्य प्रारंभ कीये जाते है और वे निष्पन्न होते हैं, कार्य के करण-काल और निष्ठाकाल के एकपने से और घट तो प्रथम समय में ही प्रारंभ किया जाता
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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