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________________ उपदेश-प्रासाद ४१ भाग १ I केवल ज्ञान होगा । इस प्रकार सुनकर सूरि-राज जनों के साथ गंगा को पार उतरने के लिए नाव में चढें । वें सूरि जहाँ-जहाँ बैठें वहाँवहाँ नाव झूकने लगी । उसके बाद मुनि नाव - मध्य में बैठे, समस्त भी नाव डूबने लगी । तब सूरि लोगों के द्वारा जल में डालें गये । अत्यंत अपमानित की हुई पूर्व भव की पत्नी जो व्यंतरी हुई थी, उसने उनको जल के अंदर शूल में पिरोया । शूल से आर-पार होते हुए भी - हा ! मेरे रुधिर से अप्काय-जीव मर रहें हैं, इस प्रकार की भावना से अन्तकृत - केवली होकर मोक्ष में गये । तब वहाँ आसन्न देवों ने उनके कैवल्य-महोत्सव को किया । अतः वह लोक में प्रयाग नामक तीर्थ हुआ । वहाँ पर - समय के माहेश्वर लोग अपने अंग में आरे को दीलातें हैं। - अब पुष्पचूला साध्वी पृथ्वी ऊपर विहार कर सकल कर्ममल के क्षय से अनंत-आनंदमय, कल्याणकारी और रोग-रहित स्थान को प्राप्त किया । गुणों से प्रशस्त और पवित्र ऐसे कहे हुए श्रीपुष्पचूला - चरित्र को सुनकर जो भव्य गुरुओं के चरणों में रक्त होतें हैं, यें सुख रूपी गृह में क्रीड़ा करतें हैं । इस प्रकार से संवत्सर - दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में, इस प्रथम स्तंभ में छट्ठा व्याख्यान पूर्ण हुआ । सातवाँ व्याख्यान अब तीसरे व्यापन्न-दर्शन लक्षणवाले भेद की व्याख्या करने की इच्छा से कहतें हैं कि - असद्ग्रहों से जिन निह्नवों का दर्शन व्यापन्न हुआ हैं, उनका संग नहीं करना चाहिए, यह तृतीय श्रद्धा हैं । असद्ग्रहों से - अभिमत व्यवस्थापक कदाग्रहों से, व्यापन्न
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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