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उपदेश-प्रासाद
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भाग १
प्रव्रज्या ग्रहण की अनुज्ञा दो ! राजा ने कहा कि- हे प्रिये ! मैं तेरे वियोग को क्षण भी सहन नहीं कर सकता हूँ । गाढ निर्बन्ध होने पर राजा ने उसे यह कहा कि - हे प्रिये ! यदि दीक्षावती तुम मेरे ही गृह में भिक्षा को ग्रहण करोगी, तो मैं तुझे अनुज्ञा देता हूँ ।
इस प्रकार राजा के वचन को स्वीकार कर उसने बड़े महोत्सव पूर्वक अर्णिकापुत्र आचार्य के समीप में प्रव्रज्या ली । अन्य दिन सूरि ने श्रुत के उपयोग से भावी दुर्भिक्ष को जानकर गच्छ को देशान्तर में भेजा । स्वयं वृद्धत्व के कारण से वही ठहरें । वह निर्दोष- आहार से, अग्लान-वृत्ति से गुरु की वैयावच्च करती हुई क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया । फिर भी गुरु की वैयावच्च से वह विरमित नही हुई और विपरीत ही गुरु के अभीष्ट को लाकर अर्पण करती थी । सूरिओं में चन्द्र तुल्य उन आचार्य ने उससे कहा- तुम मेरे मनो-अभीष्ट को प्रति-दिन कैसे जानती हो ? उसने कहा- हे भगवन् ! जो जिसका शिष्य होता हैं, क्या वह उसके भाव को नहीं जानता ?
एक दिन वह मेघ के बरसते हुए होने पर पिंड को ले आयी ! तब सूरि ने कहा कि - हे वत्से ! तुम श्रुतज्ञ हो, ऐसे मेघ के बरसने पर तुम क्यों आहार को ले आयी हो ? उसने कहा- जिन प्रदेशों में अप्काय अचित्त हैं, उन प्रदेशों में यत्न से मैंने आहार लाया हैं, उससे यह अशुद्ध नहीं हैं। गुरु ने पूछा- तूंने अचित्त प्रदेश को कैसे जाना हैं ? उसने कहा- ज्ञान से, सूरि ने कहा- कौन-से ज्ञान से, प्रतिपाति अथवा अप्रतिपाति ज्ञान से ? उसने कहा- पंचम ज्ञान से । उससे सूरि- अहो ! मैंने केवली की आशातना की हैं, इस प्रकार से कहकर और मिथ्या दुष्कृत देकर उस साध्वी से पूछा- क्या में सिद्ध होऊँगा अथवा नहीं ? केवली ने कहा गंगा को पार उतरते हुए आपको