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उपदेश-प्रासाद -- भाग १
एक दिन पुष्पकेतु के मरण प्राप्त हो जाने पर पुष्पचूल राजा हुआ । वह पुष्पचूला के साथ भोगों को भोगने लगा । अहो ! विश्व में कामान्ध कार्य-अकार्य को नहीं जानता । पुष्पवती का जीव देव अवधि-ज्ञान से पुत्र-पुत्री के अकृत्य को जानकर, पुष्पचूला को पूर्व प्रीति के वश से स्वप्न में भय-उत्पादक नरक दीखाये । उसके भय से जागी हुई पुष्पचूला ने पति के आगे वह समस्त ही निवेदन किया। उससे राजा ने बौद्ध आदि को बुलाकर पूछा कि- नरक कैसे होते हैं? कोई गर्भ-आवास को कहने लगें, कोई गुप्ति-वास को, कोई दारिद्य को और कोई पारतंत्र्य को । रानी ने बौद्ध आदि के द्वारा कहें गये को सुनकर कहा कि- इस प्रकार के नरक नहीं हैं।
अब राजा अर्णिकापुत्र आचार्य के समीप में जाकर नरक के स्वरूप को पूछा । गुरु ने कहा- सात नरक पृथ्वीओं में क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्तरह, बावीस और तैंतीस सागरोपम की स्थिति हैं और क्षेत्र से उत्पन्न हुई वेदनाएँ हैं । रानी ने यथा-स्थित गुरु के द्वारा कहे गये को सुनकर कहा कि- अहो ! क्या आपने भी उस स्वप्न को देखा हैं ? गुरु ने कहा कि - हे शुभे ! हम जिन-आगम से जानते है ! पुष्पचूला ने कहा कि - हे भगवन् ! किस कर्म से नरक में जाया जाता है ? गुरु ने कहा - जीव महा-आरंभ और विषय आदि से नरक में गिरते है । पुनः रात्री के समय में उस देव ने पुष्पचूला को स्वप्न में स्वर्ग दिखाये । वैसे ही राजा ने पाखंडियों से स्वर्ग-स्वरूप को पूछा
और वे कहने लगे कि - जहाँ चिन्तित प्राप्त किया जाता है, वही स्वर्ग कहा जाता हैं। तब गुरु से पूछने पर उन्होंने कहा कि- देव निरूपम सुखवालें और सर्वालंकार धारण करनेवालें होतें हैं । सम्यक् गृहधर्म और मुनि-धर्म के सेवन से देव-लोक के सुख प्राप्त कीये जातें हैं। उससे प्रतिबोधित हुई उस रानी ने कहा कि- हे पति ! आप मुझे