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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३८ प्रकार से सतरह भेदवाला हैं, उस संयम में रक्त-तल्लीन-मनवालें जो मुनि उनकी, और शब्द से- ज्ञानियों की, दर्शन से युक्त ऐसी उनकी भी, तीन प्रकार से-मन, वचन और काया से । सेवा करनाविनय, बहुमान, परिचरण के द्वारा । अन्यथा शिकारी के नमन के समान निष्फल होता हैं । इस गुण से युक्त वह द्वितीय, श्रद्धा होती है और उसे यथार्थवंत परिज्ञान में पुष्टि-कारिणी जानें । वह श्रद्धा सम्यक्त्व को स्फटिक के समान स्वच्छ करती हैं । इस विषय में पुष्पचूला का उदाहरण हैं
गीतार्थ की सेवा में आसक्त हुई पुष्पचूला महासती ने सर्व कर्म के क्षय से उज्ज्वल केवलज्ञान को प्राप्त किया ।
भरत-क्षेत्र में पृथ्वीपुर में पुष्पकेतु राजा था । उसकी पुष्पवती प्रिया थी । उन दोनों को पुष्पचूला-पुष्पचूल नामक पुत्री-पुत्र का युगल हुआ । वें दोनों ही अन्योन्य प्रेमशाली और विरह होने पर निधन प्रास करने की इच्छावालें थें । राजा यह जानकर विचारने लगा- ये दोनों पृथक्-पृथक् विवाहित कीये हुए परस्पर विरह के ज्वर से पीड़ित हुए मरण को प्राप्त करेंगे । अतः मैं इन दोनों का परस्पर पाणिग्रहण कराता हूँ। इस प्रकार से विचार कर मंत्री और नागरिकों को बुलाकर राजा कहने लगा- अंतःपुर में जो रत्न उत्पन्न होता हैं, उसका स्वामी कौन हैं ? उन्होंने विज्ञप्ति की- सकल मंडल में उत्पन्न हुए रत्न के आप ही स्वामी हो, तो अंतःपुर की बात ही क्या हैं ? आप ही उसके स्वामी हो । राजा अंतःपुर में उत्पन्न हुए उस रत्न का जो कुछ भी करता हैं, वह सभी को मान्य हैं । इस प्रकार छल से उनकी अनुमति को लेकर प्रिया के द्वारा निषेध करने पर भी उस पुत्र-पुत्री युगल का परस्पर विवाह किया । उस स्वरूप को देखकर उन दोनों की माता ने वैराग्य से व्रत को ग्रहण कर और तपश्चर्या कर स्वर्ग में देव हुई ।