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उपदेश-प्रासाद - भाग १ विचारने लगा कि- अहो! उसने कपट से मुझे छलित किया हैं, निश्चय ही अभय ने दीक्षा ग्रहण की होगी । तब मुट्ठि को बाँधकर के जब वह समवसरण में गया, तब व्रत ग्रहण कीये हुए अभय को देखकर श्रेणिक ने कहा कि- मैं तुम्हारे द्वारा छलित किया गया हूँ, इस प्रकार से कहकर और दोनों पादों में प्रणाम कर तथा क्षमा माँगकर गृह चला गया । अभय प्रभु के पाद के समीप में तीव्र तप कर सर्वार्थ-सिद्धि को प्राप्त की । [ किसी कथा में महोत्सव पूर्वक - अभय की दीक्षा का वर्णन भी है ]
इस प्रकार जैसे आर्हत्-धर्मधारी अभय ने परमार्थसुसंस्तव को किया था, वैसे ही यदि तुम्हारी मोक्ष रूपी वधू के आलिंगन की इच्छा हैं, तो तुम उसे करो ।
इस प्रकार संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में प्रथम स्तंभ में पाँचवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
छट्ठा व्याख्यान अब सुंदर रीति से परमार्थ को जाननेवालें ऐसे अर्हन्-मुनियों का पर्युपास्ति-करण रूप द्वितीय-भेद का विवरण किया जाता हैं
गीतार्थ, और संयम से युक्त उनकी तीन प्रकार से सेवा करना, वह द्वितीय श्रद्धा होती हैं, जो बोध में पुष्टि करनेवाली हैं।
इसकी अक्षर-गमनिका इस प्रकार से हैं -गीतं-सूत्र, अर्थ और उसका विचार, यह दोनों जिनके पास में हैं वे गीतार्थ हैं । संयम-सर्व-विरति रूप हैं, वह पाँच आश्रवों से विरमण, पाँच इंद्रियों का निग्रह, चार कषायों का जय और तीन दंडों से विरति, इस