________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
३६ प्रिया के इस वचन को सुनकर अकस्मात् ही जाग गया और यह विचारने लगा कि- मेरी प्रिया दुराचारिणी है । मुझसे भी इसे दूसरा पुरुष प्रिय हैं । उससे यह निश्चय ही दुःशीला है, तो अन्य भी दुःशीला हों । इस प्रकार चित्त में रोष को धारण करते हुए राजा ने उस रात्रि को व्यतीत की । प्रायः कर चतुर पति भी ईर्ष्या रहित नहीं होता । इस प्रकार राजा के सोचते-सोचते सूर्य-उदय हुआ । प्रातः अभय को बुलाकर कहने लगा कि- यह मेरा अंतःपुर दुराचारी हैं, उससे शीघ्र ही अंतःपुर जलाया जाय, इसमें शंका मत करना । उसे सुनकर अभय ने कहा कि- हे पिताजी ! आपका वचन प्रमाण हैं । उसके बाद श्रेणिक जिनेश्वर को वंदन करने गया । उसने वीर भगवान से पूछा कि- हे भगवन् ! क्या यह चेटक-पुत्री सती हैं अथवा असती हैं ?
स्वामी ने कहा कि-हे श्रेणिक ! तेरी समस्त ही धर्म-पत्नियाँ सती हैं । चेलणा ने रात्रि के समय में ऐसे शीत में उस मुनि का स्मरण कर कहा था कि- वें कैसे होंगे? यह सुनकर श्रेणिक शीघ्र से अपने नगर की ओर दौड़ा । इस ओर अभय ने सोचा कि- मेरे पिता ने जो आदेश दिया है, यदि मैं उस कार्य को सहसा ही करूँ तो विषाद के लिए होगा । इस प्रकार से विचारकर अंतःपुर के समीप में ही उद्वासित कीये तृण-गृहों को कर अभय ने उनको जला दीये । उसके बाद वह समवसरण के अभिमुख निकला । मार्ग में राजा ने अभय को देखकर कहा- तूंने क्या किया ? अभय ने कहा- मैंने आपका कहा किया । राजा कहने लगा- मेरी दृष्टियों के सामने से चले जाओ और अपना मुख मत दीखाओं, इस प्रकार कौन विचार कीये बिना कार्य को करता हैं ? उसे सुनकर अभय ने- पिता का वाक्य प्रमाण हैं, इस प्रकार से कहकर और आगे जाकर वीर के पास में दीक्षा ली।
इस ओर राजा ने वहाँ जलाई हुई तृण-कुटीरों को देखकर