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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ उसके समान ही अनेक स्वर्गादि के सुख को भोगने पर भी जर्जरित हुए अंगवाले ये भौतिक सुख जीव की तृप्ति के लिए नही होतें हैं। इस प्रकार की वैराग्य रूपी वाणी से प्रतिबोधित हुए इसने दीक्षा को ग्रहण की । यह अंतिमराजर्षि इसी भव में सर्वकर्म-क्षय कर मोक्ष जायगा। अभय अपने घर जाकर पिता से कहा कि- हे नाथ ! मैं आपकी आज्ञा से प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ। आप कृपा करो और दीक्षा दीलाओं क्योंकि पुण्योदय से पंडित ऐसे आप पिता को और देव-गुरु ऐसे वीर जिनेश्वर को प्राप्त कर यदि मैं अबभी दुष्कर्मका मर्म-मंथन न करूँ, तो हे पिताजी ! मेरे समान दूसरा कौन मूढ़ हैं ? अब उस पुत्र को आलिंगन कर राजा ने कहा कि- जब मैं रोष से तुझे कहूँगा कि- रे पापी ! मेरे सामने से तूं चला जा और अपना मुख मत दीखा, तब हे वत्स ! तुम दीक्षा को ग्रहण करना ! अभय ने पिता के वाक्य को स्वीकार कर भक्ति से राजा की सेवा करने लगा। ___ अब एक बार दुर्द्धर ऐसे शीत-ऋतु के समय में श्रीवीरजिन ने गुणशिल-चैत्य में समवसरण किया । श्रेणिक उस परमेश्वर को नमस्कार कर और धर्म को सुनकर चेलणा-देवी से युक्त वापिस लौटा ! मार्ग में नदी के तट पर शान्त, दान्त और कायोत्सर्ग में स्थित एक साधु को नमस्कार कर अपराह्न के समय अपने गृह में आया । रात्रि के समय वास-गृह में चेलणा के साथ रति के सौख्य का सेवन कर राजा सो गया । देवी का हाथ रजाई से बाहर आ गया। हाथ शीत से पीड़ित हो जाने पर वह निद्रा-रहित हुई । चेलणा सीत्कार करती हुई उस हाथ को शीघ्र से आच्छादन के मध्य में ले गयी ! तब निरावरण उन मुनि का स्मरण हो जाने से वह कहने लगी कि- अहो ! इस प्रकार प्राणांत कर शीत के गिरने पर वें अब कैसे होंगे? श्रेणिक
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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