________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १ ध्वजाओंवालें नगर में नंदा को प्रकृष्ट आनंद से प्रवेश कराया और उन मंत्रिओं में इस पुत्र को प्रधान किया । राजा ने बुद्धिशाली उस अभय को आगे कर बहुत देशों कों साधे ।
___अब एक दिन बहुत देव-दवी, साधु-साध्वी से संकुलित श्रीवीर की सभा में एक शांत और कृश शरीरवालें महर्षि को देखकर अभय ने इस प्रकार से कहा कि- हे भगवन् ! यें साक्षात् कौन यति दीखायी दे रहे हैं ? प्रभु ने कहा- वीरपत्तन का स्वामी और न्यायी यह उदायन राजा मेरे वंदन के लिए आया था, तब मेरे द्वारा धर्मोपदेश दिया गया
सन्ध्या के रंग और पानी के परपोटे के समान तथा जलबिन्दु के समान यह जीवन चंचल हैं । नदी के वेग के समान यौवन हैं, हे पापी-जीव ! क्या तुम यह नहीं जानतें हो ? अहो ! इस संसार में कहीं पर भी मोक्ष के समान सुख नहीं हैं। अब तुम यहाँ अंगारदाहक के दृष्टान्त को सुनो
यहाँ एक अंगारकार पानी के घड़े को लेकर वन में गया । प्यास से पीड़ित हुए उसने कुंभ से उस समस्त पानी को पीया । ऊपर से सूर्य के ताप से तथा पास में अग्नि के जलने से और काष्ठ-कुट्टन के खेद से वह फिर से भी प्यास से पीड़ित हुआ । उससे मूर्छा की प्राप्ति से वह गाढ रीति से सो गया । तब स्वप्न में उसने सर्व ही गृह के, सरोवर,कूएँ, नदी, ह्द और समुद्र के जल को समस्त ही पीया, परंतु फिर भी उसकी तृष्णा शांत नहीं हुई ! उसके बाद जीर्ण बने हुए कुएँ में घास की गठरी को ग्रहण कर उससे लाये गये और नीचे पड़ते हुए शेष पानी को वह जीभ से चूंट-घूट कर पीने लगा । जो तृष्णा समुद्र के पानी से भी नहीं छेदी गयी, वह क्या उस पानी से छेदित होगी?