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उपदेश-प्रासाद - भाग १ कि- मेरे पिता राजगृह के स्वामी हैं, उससे हम वहाँ चलें । नानी को पूछकर अभय नन्दा के साथ राजगृह नगर के उद्यान में आया । अपनी माता को वही छोड़कर अभय कूएँ के समीप में गया । वहाँ लोगों ने अंगूठी के स्वरूप को कहा ! उसे सुनकर थोडे हँसते हुए अभय ने कहा कि - यह दुष्कर नहीं है, इस प्रकार से कहकर कुमार ने पहले भीगे हुए गोबर को अंगूठी के ऊपर डाला । और उसके ऊपर बहुत अग्नि डाली । तभी वह गोबर सूख गया और उसके बाद में पानी से कूएँ को पूर्ण किया । कूएँ के पूर्ण हो जाने पर अंगूठी ऊपर आ गयी । अभय ने तीरते हुए उस गोबर को हाथ से लिया । उसे सुनकर आनंदित हुआ राजा वहाँ आकर और उसे देखकर अत्यंत हर्षित हुआ।
राजा ने आलिंगन कर उसे पूछा कि- हे वत्स ! तुम इस नगर में कहाँ से आये हो ? प्रणाम कर उसने कहा कि- आज मैं यहाँ वेनातट नामक नगर से आया हूँ । राजा ने पूछा- तुम किसके पुत्र हो? उसने कहा- मैं राजा का पुत्र हूँ। राजा ने पूछा- वहाँ तुम भद्र की पुत्री के स्वरूप को जानते हो? उसने कहा- उसे पुत्र हुआ हैं। उसका नाम अभय दिया हैं । वह रूप से, गुण से और वय से मेरे समान हैं । हे नाथ ! मुझे देखने से निश्चय ही वही देखा गया हैं। उसके साथ मेरी अतीव सौहार्दता हैं और उसके बिना क्षण भी रहने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ । राजा ने कहा- तो उसे छोड़कर यहाँ कैसे आये हो ? उसने कहा- उसे और उसकी माता को इस उद्यान में छोड़कर मैं आया हूँ। राजा उस वन में जाकर प्रिया से मिला । राजा ने कहा- तब जो गर्भ हुआ था, वह कहाँ हैं ? उसने कहा- यही पुत्र हैं । राजा ने कहा- हे पुत्र ! तूंने इस प्रकार झूठ क्यों कहा? अभय कहा- मैं सदा माता के हृदय में निवास करता हूँ, उससे ऐसा कहा था । तब राजा ने अभय को अपनी गोद में बिठाया । अब राजा संमुख जाकर ऊँची