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उपदेश-प्रासाद - भाग १
एक दिन राजा के गृह के जल जाने पर अन्य कुमार मणिमाणिक्य आदि को ग्रहण करने लगें, किन्तु श्रेणिक ने राजा के प्रथम जय-चिह्न ऐसे भंभा को ग्रहण किया । तब प्रसेनजित् राजा ने उसका भंभासार नाम रखा । तब श्रेणिक के बिना अन्य कुमारों को पृथक्पृथक् देश दीये । उस अपमान से श्रेणिक अपने पिता के नगर से निकलकर क्रम से वेनातट नगर में आया । उस नगर में प्रवेश कर प्रथम भद्र नामक श्रेष्ठी के दूकान पर बैठा । श्रेष्ठी ने उसके माहात्म्य से बहुत धन का उपार्जन किया । तब श्रेष्ठी ने उससे कहा कि- हे पुण्य-निधि । आज तुम किसके अतिथि हो ? श्रेणिक हँसकर कहने लगा- आपका ही । यह सुनकर भद्र ने हृदय के अंदर विचार कियाआज मैंने स्वप्न में पुत्री के जिस योग्य वर को देखा हैं, वह यह आ गया हैं । इस प्रकार से विचारकर उस श्रेष्ठी ने अपनी दूकान को बंदकर, उस कुमार को अपने साथ ही स्व-गृह में ले गया । उस श्रेष्ठी ने गौरव के पात्र ऐसे उस श्रेणिक का स्नान, भोजन आदि से गौरव किया।
श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री सुनन्दा का महोत्सव सहित श्रेणिक के साथ विवाह कराया । उसकी सुनन्दा के साथ प्रीति हुई । सुनन्दा ने क्रम से गर्भ को धारण किया । श्रेणिक ने उसके जिन-पूजन, गजआरोहण, हिंसा-त्याजन आदि अनेक दोहदों को पूर्ण कीये । इस ओर प्रसेनजित् राजा पुत्र-वियोग से अति-दुःखित हुआ किसी सार्थ के मुख से पुत्र के बारे में सुना कि-श्रेणिक वेनातट नगर में हैं । मरणांत कृत रोग से मृत्यु को समीप में जानकर राजा ने शीघ्र से श्रेणिक को लाने के लिए ऊँट सवारों को आदेश दिया । श्रेणिक ने उन ऊँटसवारों से अपने पिता को हुए रोग को जानकर प्रिया से कहने लगा- मैं पिता के पास जाऊँगा और तुम अब यहाँ पर ही रहो । और तुझे जो पुत्र