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उपदेश-प्रासाद भाग १
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अंगारमर्दक आदि को भी परमार्थ संस्तव आदि की संभावना नहीं होने से, व्यभिचार नहीं हैं । और यहाँ पर तात्त्विकों का ही इनके अधिकारपने से और इन तत्त्वों का तथाविधों को अधिकारपने की असंभावना नहीं होने से, अतः इस विषय में अभय का दृष्टांत कहा जाता हैं ।
औत्पत्ति आदि बुद्धियों का घर रूप और मंत्रियों में श्रेष्ठ ऐसे अभय ने तत्त्वों के परिचय से सर्वार्थ सिद्ध के सुख को प्राप्त किया था । राजगृह नगर में प्रसेनजित् राजा राज्य कर रहा था और उसे श्रेणिक आदि सो पुत्र थें । एक दिन राजा ने राज्य के योग्य पुत्र की परीक्षा के लिए पुत्रों के खाने के लिए खीर की थालियाँ अर्पण की । उसके बाद भोजन करने के लिए प्रवृत्त हुए पुत्रों के ऊपर राजा ने क्षुधा
कृश ऐसे कुत्तों को छोड़ें। तब श्रेणिक के बिना भोजन से खरंटित हाथवालें ऐसे अन्य कुमार कुत्तों के आजाने पर खडे हुए किन्तु श्रेणिक ने सहोदरों के भाजनों को कुत्तों के आगे डाला और स्वयं भोजन करने लगा । राजा ने उस वृत्तांत को सुनकर मन में उसकी प्रशंसा की और बाहर श्रेणिक से कहा- तुमको धिक्कार हैं जो कुत्तों के साथ तूंने भोजन किया हैं । फिर से भी परीक्षा के लिए ढंके हुए तथा खाद्य आदि से भरे हुए मोदकों के करण्डकों को और जल- कोरक कुंभों को पुत्रों को देकर राजा ने कहा कि- हे पुत्रों ! तुम इनको खोले बिना ही पक्वान्न का भोजन करो और जल को पीओं । श्रेणिक ने भूख से पीड़ित उनको देखकर रहस्य में करंड़को को हिला-हिलाकर शलाका के अंदर से निकले हुए चूर्ण के द्वारा तथा कुभों के ऊपर ढंके हुए वस्त्रों को नीचोनीचोकर उससे निकले हुए जल से कुमारों को तृप्त किया । उसे सुनकर राजा ने कहा कि जिसकी ऐसी बुद्धि हैं, वह खाद्यों के चूर्ण करने से रंक ही हैं ।
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