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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ... २६ उदय से स्वयंभूरमण-समुद्र के मत्स्य के भक्षण नियम को भी नहीं ले सकता था। इस प्रकार से अविरत होता हुआ भी श्रेणिक क्षायिकसम्यक्त्व के बल से श्रीवीर प्रभु के समान ही बहोत्तर वर्ष की आयुवाला और सात हाथ की ऊँचाईवाला प्रथम तीर्थंकर बनेगा। __ श्रीश्रेणिक आद्य-भूमि में चौरासी हजार वर्ष ऐसे नियतआयु को भोगकर क्षायिक-दर्शन के सद्-भाव से तीर्थंकर होगा । इस प्रकार संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में तथा इस प्रथम स्तंभ में क्षायिकसम्यक्त्वके ऊपर श्रीश्रेणिक-राजा का यह चौथा प्रबंध संपूर्ण हुआ। पाँचवाँ व्याख्यान यह सम्यक्त्व श्रद्धा आदि सम्यक्त्व के सडसठ प्रकारों से विशुद्ध होता हैं । अब मैं सम्यक्त्व के सडसठ भेदों को कहूँगा । वहाँ प्रथम चार श्रद्धा के भेद हैं। उनमें से आद्य भेद परमार्थ-संस्तव हैं और अब उसका स्वरूप कहा जाता हैं। जीव-अजीव आदि तत्त्वों का सत् आदि सात पदों से हमेंशा चित्त में चिन्तन करना, वह प्रथम श्रद्धा हैं। जीव-प्राणों को धारण करते हैं, वे जीव हैं और उनसे विलक्षण-विपरीत अजीव हैं । आदि शब्द से पुण्य, पाप, आश्रवं, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष का उपग्रहण हैं । उन तत्त्वों का सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्प-बहुत्व, इन सात स्थानों से हमेशा-पुनः पुनः, उनका मन में चिन्तन-पर्यालोचन करना वह सम्यक्त्व की परमार्थ-संस्तव नामक और परम-रहस्य परिचय नामक प्रथम श्रद्धा हैं।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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