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उपदेश-प्रासाद - भाग १
राजा भी अपने नगर में आकर और कपिला को बुलवाकर कहने लगा- तुम यतियों को दान दो । कपिला ने कहा- आप मुझसे ऐसा मत कहो और आपके आदेश से मैं अग्नि में प्रवेश करूँ अथवा हालाहल विष का भक्षण करना चाहती हूँ, किन्तु मैं इस कृत्य को नहीं करूँगी । उसे छोड़कर राजा कालसौरिक से कहने लगा कि- तुम एक अहो-रात्र तक बैलों को मत मारों ! उसने भी कहा कि- हे स्वामी ! आजन्म से प्रति-दिन ही आरंभ की हुई पाँच सो जीवों की हिंसा को मैं छोड़ नही सकता हूँ। क्योंकि
मेरा अब शेष-आयु हैं और मैं इस जीव-हिंसा को नहीं छोडूंगा, दुस्तर ऐसे समुद्र को तीरकर कौन गोष्पद अर्थात् छोटे गड्ढे में गिरें?
उसके वचन से राजा हास्य को प्राप्त कर उसे अंधे कूएँ में डाला । प्रातः काल में प्रभु को नमस्कार कर कहने लगा कि- हे स्वामी ! मेरे द्वारा बैलों की हिंसा करनेवाला वह कालसौरिक निषेध किया गया हैं। स्वामी ने कहा- वह कूएँ में मिट्टी से बनें पाँच सो बैलों का निर्माण कर हिंसा कर रहा हैं । श्रेणिक उसे सुनकर प्रभु से कहने लगा कि- हे नाथ ! आप कृपा- निधि को छोड़कर मैं किसके शरण में जाऊँ ? स्वामी ने कहा कि- हे वत्स ! तुम विषाद मत करो, आगामी तृतीय-भव में सम्यक्त्व की महिमा से तुम मेरे समान पद्मनाभ नामक तीर्थंकर बनोगे । (यहाँ पर बहुत कहने योग्य हैं, उसे आप उपदेश-कन्दली से जानें)।
इस प्रकार प्रभु के वाक्य को सुनकर और हर्ष के साथ अपनी नगरी में आकर वह धर्म-कृत्यों को करने लगा । वह तीनों काल जिन-पूजा करता हैं और प्रति-दिन जिनेश्वर के आगे एक सो और आठ स्वर्ण चावलों से स्वस्तिक को करता है और वह अविरति के