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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ प्रभु ने कहा- मिथ्यात्व से पूर्व में बाँधे हुए आयु को भोगना ही पड़ता हैं, यही प्रतिक्रिया हैं । फिर भी अति-आग्रह के वश से राजा को समझाने के लिए प्रभु ने कहा कि- हे राजन् ! यदि तुम कपिला के हाथ से यतियों को दान दीलाओं और पाँच सो जीवों का वध करते हुए कालसौरिक का निवारण करो, तब तुम्हारी दुर्गति नहीं होगी ! इस प्रकार से सुनकर अपने नगर की ओर आते हुए राजा की परीक्षा के लिए द१रांक ने मत्स्य पकड़नेवाला एक मुनि का रूप किया । मत्स्यमांस खानेवालें उसे देखकर राजा ने कहा कि- हे भिक्षुक ! तुम इस दुष्ट कर्म को छोड़ो ! उसने कहा कि- मैं ऐसा नहीं हूँ किन्तु वीर के बहुत शिष्य ऐसे ही हैं। इसे सुनकर श्रेणिक ने कहा कि- यह तुम्हारा ही अभाग्य हैं और वें तो गंगा के तरंगों के समान पुण्य-स्वरूपवालें हैं। इस प्रकार उसकी निन्दा कर अपनी नगरी में प्रवेश करता हुआ उसने एक साध्वी सदृश रूपवाली स्त्री जो लाख के रस से चरणों में रंगी हुई, औचित्य के अनुसार आभरणों को पहनी हुई, काजल के समान नेत्रोंवाली, तांबूल से भरी हुई मुखवाली तथा गर्भ-सहित देखी । उसे देखकर राजा कहने लगा कि- हे भद्रे ! यह तुम प्रवचनविरुद्ध क्या आचरण कर रही हो ? उसने कहा कि- मैं ही ऐसी नहीं हूँ, किंतु बहुत-सी श्रमणियाँ भी ऐसी ही हैं । राजा कहने लगा किरे पापिनी ! तेरा ही अभाग्य है, जिससे तुम ऐसा विरुद्ध कह रही हो । इस प्रकार से निन्दा कर आगे चलते हुए राजा को दिव्य-रूप से विभूषित देव ने प्रणाम कर कहा कि- हे मगध के स्वामी ! तुम धन्य हो, जैसे इन्द्र के द्वारा प्रशंसा की गयी, वैसे ही समुद्र के समान तेरे दर्शन ने अपनी सीमा को नही छोड़ी हैं, इस प्रकार स्तुति कर हार और वस्त्र-युगल उसे देकर वह देव तिरोहित हुआ ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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