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उपदेश-प्रासाद - भाग १
एक दिन हमें वंदन के लिए उत्सुक हुई पानी ले जानेवाली स्त्रियों के मुख से हमारे आगमन को सुनकर जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होने से हमारे वंदन के लिए मार्ग में आता हुआ वह मेंढक तेरे 'घोड़े के पैर से मरण को प्राप्त हुआ हमारें ध्यान से सौधर्म-कल्प में दर्दुरांक देव हुआ । वह यही देव हैं जो इन्द्र द्वारा की गयी तेरी सम्यक्त्व प्रशंसा की श्रद्धा नहीं करता हुआ यहाँ तेरी परीक्षा के लिए आया था । इस देव ने कुष्ठ के बहाने से हमारी गोशीर्ष-चन्दन से भक्ति की हैं।
इस प्रकार यह सुनकर श्रेणिक ने जिन से पूछा कि- इसने आपको तुम मरो इस प्रकार से क्यों कहा? तब प्रभु ने कहा कि- देव ने भक्ति-राग से कहा है कि- हे स्वामी ! तुम संपूर्ण कर्मों के क्षय से शीघ्र ही स्वभाविक सुखवालें और जाति आदि से मुक्त मोक्ष को प्राप्त करो। फिर से राजा ने पूछा कि- इसने मुझे तुम चिर समय तक जीओं, ऐसा क्यों कहा ? स्वामी कहने लगें- यहाँ जीवित रहते हुए तुम राज्य-सुखों का अनुभव कर रहे हो और मरण को प्राप्त करने पर घोर नरक को प्राप्त करोगें, इस प्रकार के अभिप्राय से उस देव ने तुझे ऐसा कहा है । और मंत्री के प्रति जो उसने कहा था उसका कारण यह है कि यहाँ पर जीवित यह बहुत सुखों का अनुभव कर रहा हैं और मरण को प्राप्त होने पर लवसप्तमिक देव अर्थात् सर्वार्थ-सिद्ध विमान में देव होगा, इस कारण से उसने मंत्री से कहा कि तुम जीओ अथवा मरो। और कालसौरिक तो यहाँ जीवित रहते हुए नित्य ही पशु-वध कर रहा हैं और मरण को प्राप्त होने पर नरक को प्राप्त करेगा, इसलिए तुम न जीओ और न मरो, इस प्रकार से उस देव ने कहा था ।
यह सुनकर आश्चर्य-चकित हुआ राजा प्रभु को नमस्कार कर कहने लगा- आप मुझे नरक-गति निवारण का उपाय कहो ।