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उपदेश-प्रासाद - भाग १
इस प्रकार से सोचकर रानी नदी के समीप में गयी । जब उसने विनय से पति के द्वारा कहे हुए को कहा, तब नदी ने उसे मार्ग दिया । देवकुल में जाकर और देवर को नमस्कार कर उसने धर्म को सुना । तब मुनि ने पूछा- नदी ने तुम्हें कैसे मार्ग दिया ? उसके द्वारा यथा-स्वरूप कहने पर मुनि ने कहा कि- सुनो, मेरे साथ व्रत की आकांक्षावाला मेरा भाई लोगों की अनुग्रह की इच्छा से राज्य और भोगों का अनुभव करता हुआ भी व्यवहार से, निश्चय से ब्रह्मचारी ही है, क्योंकि
कीचड़ में कमल के समान ही इस प्रकार से निर्लेप मनवाले राजा को गृहवास में भी रहते हुए ब्रह्मचारिता घटित होती है ।
रानी ने वन के एक देश में स्व भोजन के लिए साथ में लाएँ शुद्ध आहार से देवर को प्रतिलाभित कर स्वयं ने भोजन किया । वापिस जाने की इच्छावाली उसने मुनि से पूछा कि- मैं नदी को कैसे पार उतरूँ ? मुनि ने कहा कि
तुम नदी देवी से कहना कि यदि यह मुनि व्रत से लेकर नित्य ही उपवास का आचरण करते हो तो तुम मुझे मार्ग दो । पुनः विस्मय को प्राप्त हुई रानी नदी के तट पर गयी । मुनि के वाक्य को सुनाकर और नदी को पारकर रानी गृह गयी ।
राजा के समीप में जाकर और पूर्व में हुए वृत्तांत का निवेदन कर रानी ने पूछा कि- हे स्वामी ! आज मैंने पारणा कराया है, कैसे वें मुनि उपवासी हो ? राजा ने कहा कि- हे देवी ! तुम आगम के वाक्य को सुनो, जैसे कि
दोष रहित आहार से साधुओं को नित्य ही उपवास है, फिर भी वें उत्तर-गुणों की वृद्धि के लिए उपवास की इच्छा करतें हैं । धर्म के लिए नहीं कीये और नहीं कराये शुद्ध आहार का भोजन करनेवाले,