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उपदेश-प्रासाद - भाग १ मुनि को नित्य ही उपवास का फल कहा गया है।
इत्यादि वचन से स्व-पति और देवर के माहात्म्य को देखकर उसने तीनों प्रकार से शीलादि धर्म को स्वीकार किया।
शील व्रतादि से युक्त मनुष्यों की स्तुति से नदी ने राज-प्रिया को मार्ग दिया था । यदि उसे स्व हृदय में धारण करें तो कर्म रूपी समुद्र उस अक्षर मोक्ष-मार्ग को भी दे ।
इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में छियासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
सत्तासीवा व्याख्यान इस व्रत में भी पाँच अतिचारों का वर्जन करना चाहिए, वेंइस प्रकार से है -
इत्वरात्तागम, अनात्तागति, परविवाहन, मदनात्याग्रह और अनंगक्रीड़ाये, ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार कहें गये हैं।
इत्वरा-प्रति पुरुष के प्रति गमन करने की स्वभाववाली, इसका अर्थ वेश्या है । वह आत्ता-ग्रहण की गयी हो, भाड़ा के प्रदान
आदि से किसी काल तक संगृहीत की गयी हो । अथवा इत्वर काल तक आत्ता-ग्रहण की गयी । उसका गम-आसेवन है । यहाँ पर यह भावना है कि- भाड़े के प्रदान से इत्वर काल तक स्वीकार के द्वारा स्व पत्नी की गयी वेश्या का सेवन करनेवाले को स्वबुद्धि की कल्पना से स्व-दारत्व से व्रत के सापेक्षत्व के कारण से भंग नहीं है और अल्पकाल के परिग्रह से वस्तुतः अन्य स्त्री होने से भंग है, इस प्रकार से यह प्रथम अतिचार है।