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________________ ४२० उपदेश-प्रासाद - भाग १ मुनि को नित्य ही उपवास का फल कहा गया है। इत्यादि वचन से स्व-पति और देवर के माहात्म्य को देखकर उसने तीनों प्रकार से शीलादि धर्म को स्वीकार किया। शील व्रतादि से युक्त मनुष्यों की स्तुति से नदी ने राज-प्रिया को मार्ग दिया था । यदि उसे स्व हृदय में धारण करें तो कर्म रूपी समुद्र उस अक्षर मोक्ष-मार्ग को भी दे । इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में छठे स्तंभ में छियासीवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। सत्तासीवा व्याख्यान इस व्रत में भी पाँच अतिचारों का वर्जन करना चाहिए, वेंइस प्रकार से है - इत्वरात्तागम, अनात्तागति, परविवाहन, मदनात्याग्रह और अनंगक्रीड़ाये, ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार कहें गये हैं। इत्वरा-प्रति पुरुष के प्रति गमन करने की स्वभाववाली, इसका अर्थ वेश्या है । वह आत्ता-ग्रहण की गयी हो, भाड़ा के प्रदान आदि से किसी काल तक संगृहीत की गयी हो । अथवा इत्वर काल तक आत्ता-ग्रहण की गयी । उसका गम-आसेवन है । यहाँ पर यह भावना है कि- भाड़े के प्रदान से इत्वर काल तक स्वीकार के द्वारा स्व पत्नी की गयी वेश्या का सेवन करनेवाले को स्वबुद्धि की कल्पना से स्व-दारत्व से व्रत के सापेक्षत्व के कारण से भंग नहीं है और अल्पकाल के परिग्रह से वस्तुतः अन्य स्त्री होने से भंग है, इस प्रकार से यह प्रथम अतिचार है।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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