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उपदेश-प्रासाद
भाग १
अमात्य और सेनापति को नहीं देखते हुए राज - पुत्र से विज्ञप्ति की कि - हे देव ! समुद्रदत्त श्रेष्ठी का पुत्र पर - देश में मृत हुआ है, उससे आप उसके धन को ग्रहण करो। वह भी वहाँ गया और अन्य कुछभी नहीं देखते हुए दृढ़ तरह से ताला दीये हुए उस मञ्जूषा को लेकर जब वह खोलने लगा, तब वें चारों भी उस मञ्जूषा से बाहर निकलें । उस ब्राह्मण को देश से निष्कासित कर राजा ने शीलवती का सत्कार कर प्रशंसा की ।
इत्यादि गुरु के पास में उन दोनों ने धर्म को सुना । कुमारदेव ने स्व-दार संतोष व्रत को ग्रहण किया । चन्द्र दीक्षा को प्राप्त कर शुद्ध आहार को ग्रहण करता हुआ तपस्वी हुआ। एक बार विहार करते हुए श्रीपुर के समीप देवकुल में आकर स्थित हुए । तब राजा वंदन करने गया । रानी ने - दिवस में चन्द्र यति को वंदन कर मैं भोजन करूँगी, यह अभिग्रह लिया । प्रभात में जब वह मुनि के वंदन के लिए निकली, तब बीच में नदी, ऊपर से बादलों की वृष्टि से जल से पूर्ण हुई । यह देखकर खिन्न हुई रानी के बारे में सुनकर राजा ने कहा कि - नदी के तट के ऊपर जाकर तुम इस प्रकार से कहना -
हे देवी नदी ! यदि देवर के व्रत दिन से आरंभ कर मेरा भर्त्ता व्रतचारी है तो शीघ्र से तुम मुझे मार्ग दो ।
रानी ने सोचा कि मैं पति के शील संबंध को जानती हूँ, परंतु वहाँ सर्व जाना जायगा । मैं अब पति के वाक्य को करती हूँ। पति की आज्ञा में संशय से पतिव्रतत्व का खंडन होगा, क्योंकि
पति के आदेश में संशय करती हुई सती, राजा के आदेश में संशय करता हुआ सैनिक, गुरु के आदेश में संशय करता हुआ शिष्य और पिता के आदेश में संशय करता हुआ पुत्र अपने व्रत को खंडित करता है ।