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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ तथा कोई जीव शीलवती के समान संकट में भी स्व-शील - ४१७ को नही छोड़ते है, जैसे कि 1 लक्ष्मीपुर में समुद्रदत्त श्रेष्ठी स्व प्रिया को गृह में छोड़कर सोमभूति ब्राह्मण के साथ पर - देश गया । कितने ही दिनों के पश्चात् ब्राह्मण श्रेष्ठी के दीये हुए पत्र को लेकर स्व गृह में आया । अपने पति के द्वारा भेजे गये पत्र को लेने के लिए शीलवती ब्राह्मण के घर पर गयी। उसे देखकर कामातुर हुए ब्राह्मण ने इस प्रकार से कहा कि - हे कृशोदरी ! तुम मेरे साथ तब तक क्रीड़ा करो, पश्चात् मैं तुझे पति का लेखादि अर्पण करुँगा । उस चतुर स्त्री ने कहा कि- रात्रि के प्रथम प्रहर में तुम मेरे गृह में आना । इस प्रकार से कहकर और जाकर के सेनापति से कहा कि - हे देव ! मेरे पति के लेख को अर्पण नहीं कर रहा है । यह सुनकर और उसे देखकर विकल हुए उसने भी कहा किहे सुभ्रु ! तब तक तुम मेरा कहा करो, पश्चात् मैं उसे दिलाऊँगा । इस प्रकार से कहने पर स्व- व्रत के भंग से भय-भीत वह उसे द्वितीय प्रहर का कहकर मंत्री के समीप में गयी । उसके वैसा ही कहने पर तृतीय प्रहर का कहकर राजा के समीप गयी । राजा के द्वारा वैसे ही प्रार्थना करने पर चौथे प्रहर का निवेदन कर, आप मुझे चौथे प्रहर में बुलाना इस प्रकार से पति की माता से संकेत कर वह सायंकाल में रिक्त ऐसे स्व आवास में स्थित हुई । उसी प्रहर में आये हुए ब्राह्मण को स्नान, पान आदि से प्रथम प्रहर को व्यतीत किया । 1 इस ओर सेनापति आया । उसके शब्द से शरीर से काँपते हुए ब्राह्मण को मञ्जूषा के कोणे में डाला । इस प्रकार से चारों को भी डाला । प्रभात होने पर रोती हुई शीलवती को कुटुंब ने कहा- तुम क्यों रो रही हो ? उसने भी कहा- कल मेरे पति की अक्षेम वार्त्ता आयी थी । यह सुनकर उसके स्वजनों ने स्व-स्व गृहों में राजा,
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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